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स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
स्वयंसंवेवन को इस दृष्टि से प्रमाण कहा गया है कि विज्ञान स्वसंवेदी होने से स्व में भासित होने वाले नोलावि आकार को अपने से अभिन्नरूप में ग्रहण करता है। अतः वह स्वयं ही नीलावि आकार बाह्य न होने में प्रमाण होता है। किन्तु उपर्युक्त रीति से बाह्यार्थ का अदर्शन अर्थात् ज्ञानभिन्नरूप में नीलादि के प्रदर्शन को ज्ञानभिन्न नोलाधि के अभाव में साधक प्रमाण रूप से सिद्ध न होने से उक्त कथन का अभिप्राय यही निर्धारित करना होगा कि स्वसंबेदी विज्ञान यतः नीलादि प्राकार को अपने से अभिन्न रूप में ग्रहण करता है अतः उससे यह फलित होता है कि नीलादि का ज्ञानमिन्नत्वरूप से अवर्शन होता है । अत: ज्ञान का स्वसंवेदन ज्ञानभिन्न अर्थ के अदर्शनरूप प्रमाण का उत्थायक-उद्भावक होकर ज्ञान भिन्न अर्थ को प्रभावसिद्धि में सहायक होता है ।।११॥
'विज्ञान स्वयंसंवेदी होने से बाद्यार्थाभाव के साधकप्रमाण का जत्थापक है।' इस के विरुद्ध १२ वीं कारिका में युक्ति प्रस्तुत की गई है
अत्रोच्यतेमूलम् ... तपासात् तत्स्वसंवेद्य मिष्यते ।
तदने ग्रहस्तस्य ततः किं नोपपद्यते ॥ १२॥ यद्-यस्मात् तद्-विज्ञानम्, अर्थग्रहणरूपं मायार्थयरिकछेदात्मकं सत, स्वसंवेद्यमिष्यते–'नीलमह वेनि' इति विच्छिन्नार्थग्रहणरूपतयाऽनुभूतेः, तसेवने एवंभूराविज्ञानानुभवे तद्ग्रहः बाह्यार्थग्रहः ततः तस्मात् कारणात् किं नोपपद्यते ? अधिकृतवेदनस्यैवार्थमन्तरेणायोगात् १ इति ।
खलस्य योगाचारण्य ज्ञात्वार्थद्व पितामिव ।
सभायामधुना सभ्याः ! अनर्थ उपतिष्ठते ॥ १ ॥ तथाहि-यत् तावदुक्तम्-'ज्ञानभिन्नस्य ज्ञानाविषयत्वाद् न बाह्यार्थः, इति तद् विपरीतम्, तद्विषयताप्रयोगस्य भेदगर्भत्वात् । किञ्च, आद्यग्राहकाकारस्वरूपभेदः प्रत्यक्षसिद्ध एव । अत एव नीलाकारं नाहमाद्याकारमिति चेत् ? न, अनेकाकारकरम्बितकविज्ञानानभ्युपगमे नील-धवलाद्यवगाहिचित्रज्ञानानुपपत्तेः । 'ऋमिकाण्येव तज्ज्ञानानि' इत्यभ्युपगमेऽप्येकमपि नीलादिज्ञानं न व्यवतिष्ठेत, नीलाकारेऽपि नीलवोपरागाद, एकापलापेऽन्याफ्लापस्य तुल्यत्वात् । चित्रज्ञानाभ्युपगमे च चित्रार्थोऽप्यनिवारितः, ग्राह्य-ग्राहकमेदस्य सत्यस्य प्रतिभासात् । एतेन 'विवेकेनाऽग्रहणाद् न तद्भेदः सत्यः' इति निरस्तम्, आकारयोरसंभेदेन वेदनस्यैव विवेचनत्वात् प्रकाश-प्रकाशसयोस्तु मिथोऽनुपरागलक्षणेनाऽसंभेदेन वेदनाभावात् ।
[वाद्यार्थग्रहण से अनुविद्ध विज्ञान का स्वसंवेदन-उत्तरपक्ष ] जिस कारण से विज्ञान को स्वसंवेद्य माना गया वह बाह्यार्थग्रहण रूप माना गया है इसीलिए ऐसे विज्ञान के अनुभव में ज्ञानभिन्न बाह्मार्थ का ग्रहण क्यों नहीं उपपन्न हुआ?