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[ शास्त्रधार्ता० स्त० ५ श्लो० ११
है' इस कथन से विज्ञानवादी को यही अभीष्ट है कि नीलादिस्वरूप में प्रतीत होने वाले सारे अर्थ जान से भिन्न नहीं है।
एतेन 'अदर्शनादेवाभावनिश्चये पुत्रादर्शनात् तदभावनिश्चयेनोरस्ताडनादिना शोकप्रसंगः' इति दुर्भाषितमपास्तम्, परंप पुत्रध्वंसबहसामधनियतत्वात् तदाकारम्य, पुत्रधंसनहस्य च शोकहेतुत्वादिति । कथं तहि प्राक् पूर्वकालसंबन्धित्वेनादर्शनात् तदभावप्रहः उक्तः १ इति चेत् ? धम्यतिरिक्तस्य तस्य दुर्वचत्वाद् धर्मिस्वरूपत्वे योग्यस्वेन तदापादनसंभवादित्याकलय । एवं च विज्ञानस्वसंवेदनस्यत्र मानवादित्याशयव्याख्याने 'मानत्वात्' इत्यस्य 'मानोत्थापकत्वात्' इत्यों बोध्यः ॥ ११ ॥
[पुत्र के अदर्शन से शोकप्रसंग का अनिष्ट बौद्ध को नहीं है । कुछ लोगों का ऐसा कथन है कि-'प्रदर्शन से ही प्रभाव का निश्चय मानने पर घर से बाहर गये हुये मनुष्य को गृहस्थित प्रश्न का प्रदर्शन होने से पुत्र के अभाव का निश्चय हो जायगा जिसके फलस्वरूप गृह से बाहर गये हये मनुष्य को छाती कुट्टन करते हुये शोकाक्रान्त होना अनिवार्य है ।'किन्तु यह कथन युषितहीन होने से नितान्त दुर्भाषण मात्र है क्योंकि पुत्रवान् मनुष्य के शोक का कारण पुत्र के सामान्य अभाय का ज्ञान नहीं होता किन्तु पुत्रध्वंस का ज्ञान होता है और पुत्रध्वंसाकार ज्ञान तभी होता है जब उस प्रकार के ज्ञान को सामग्री होती है। उस सामग्री में पुत्र का ध्वंस भी घटक होता है। अतः गह के बाहर गये हुए मनुष्य के समक्ष पुत्रध्वंस न होने से अथवा पुत्रध्वंस को कोई सूचना न होने से पुत्रध्वंस का ज्ञान न होने के कारण गह के बाहर पुत्र के अदर्शन मात्र से शोक का प्रसंग नहीं हो सकता।
[अर्थ के अदर्शन से उसके अभाव के ग्रहण का तात्पर्य ] इस पर यदि यह कहा जाय कि-"यदि अर्थ के प्रदर्शन मात्र से उसके प्रभाव का ग्रहण नहीं होता तो पहले यह कैसे कहा गया कि दृश्यमान अर्थ में पूर्वकालसम्बन्ध के प्रदर्शन से पूर्वकालसम्बन्ध के अभाव का ग्रहण होता है ? यहां यह नहीं कह सकते कि-'दृश्यमान अर्थ में पर्वकाल के सम्बन्ध के प्रभाव का ग्रहण भी पूर्वकाल के सम्बन्ध के ध्वस का ही ग्रहण है';-क्योंकि दृश्यमान अर्थ में पूर्वकालसम्बन्ध के ध्वंस का ग्रहा अनुभूयमान नहीं है किन्तु पूर्वकाससम्बन्ध के अभावमात्र का अनुभव होता है"-इसका उत्तर यह है कि पूर्वकाल सम्बन्ध धर्मी से भिन्न दुर्वच है । अतः 'दृश्यमान अर्थ में यदि पूर्वकालसम्बन्ध होता तो वह धर्मोस्वरूप होने से प्रत्यक्षयोग्य होता।' इस प्रकार उसके सत्त्व से उसके प्रत्यक्ष का आपादान हो सकता है। अतः पूर्वकालसम्बन्ध का अदर्शन पूर्वकालसम्बन्ध को योग्यानुपलब्धिरूप है इसलिये पूर्वकालसम्बन्ध के अदर्शन से पूर्वकालसम्बन्ध के प्रभाध का ज्ञान होता है यह जो कहा गया है वह केवल प्रदर्शनमात्र से नहीं किन्तु योग्यतासहकृत अदर्शन से। उस रीति से बाहाथ के अवशन को बाह्यार्थ के प्रभाव में प्रमाण मानने वाले विज्ञानमात्रवादी बौद्ध के प्राशय को जो यह व्याख्या की जाती है कि-'विज्ञान का स्वयंसवेदन हो वाह्मार्थ के अभाव में प्रमाण है। उसे 'विज्ञान का स्वसंवेवन ही बाह्याभाव के साधक प्रमाण का उत्थापक है' इस अर्थ में ग्रहण करना चाहिये । तात्पर्य यह है कि विज्ञानवादी की ओर से बाह्यार्थ के अभाव में विज्ञान