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स्या०० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
संगत है कि भूतलादि में घटादि की प्राधारता की प्रतीति-अविधा वासनाविशेष से ही नियन्त्रित होती है अतः आधाराधेयभाव के सम्बन्ध में कोई नया प्रश्न नहीं किया जा सकता।
__कुछ लोगों को यह कल्पना है कि-"ज्ञान के आकार में जो 'अन्तर' 'बाह्य का विभाग होता है-जैसे ग्रहणाकार ज्ञान का अन्तराकार है और नीलादि प्राकार उसका बाह्य आकार है- यह विभाग अर्थ की अतिरिक्त सत्ता न मानने पर नहीं हो सकता'; किन्तु यह कल्पना भी निरस्तप्रायः है क्योंकि ज्ञान से अतिरिक्त अर्थसत्ता न मानने पर भिन्नवेश के साथ सम्बन्त्र होने और न होने के आधार पर उक्त विभाग का भले सम्भव न हो किन्तु ज्ञान में विभिन्न रूपों के होने से रूपभेद से उक्त विभाग हो सकता है । अन्यथा यदि ज्ञान में बाह्याकारता बाह्याथं की भिन्न देश में सत्ता होने से हो मानी आयगी तो स्वप्नादि अवस्थाओं में जो भिनादेशसम्बन्धो रथादि न होने पर भी उनके ज्ञान में बाह्माकारता होती है वह उपपन्न न हो सकेगी। अत: ज्ञान को बाह्याकारत को असत्ता मूलक में मान कर शासनामूलक मानना ही उचित है। इसी प्रकार ज्ञान के अहमाकार और इदमाकार के भेद को भी समान लेना चाहिये । अर्थात वे दोनों आकार भी विभिन्न अर्थों की सत्ता के अधीन न हो कर स्वरूपाधीन ही है-अर्थात ज्ञान के प्रहमाकार और इदमाकार में भेवकान्तरनिरपेक्ष स्वाभाविक भेद है। 'इदं नीलम्' इस प्रकार के नानस्थल में इदमाकार नीलाकार भी वास्तव में एक दूसरे से स्वरूपतः भिन्न है, उनमें एकज्ञानरूपता की भ्रान्ति दोनों में भेद के अज्ञानरूप दोष से ही होती है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-"अर्थ में जो इदन्त्व प्रतीत होता है वह ज्ञान का धर्म न होकर अर्थ का धर्म है । क्योंकि 'इदं' शब्द का प्रयोग बाह्यार्थ में ही लोक में दृष्ट है आन्तर अर्थ में नहीं। अतः नीलादि बाह्य पदार्थ को माने विना तत्स्वरूप इदन्त्य की उपपत्ति नहीं हो सकती";-क्योंकि शुक्ति. स्थल में विद्यमान रजत में भी दोषवश 'रजतमिदम्' इस प्रकार इदस्व को प्रतीति होती है अतः इदत्व नोलाविरूप बाह्य अर्थस्वरूप नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त इदन्त्य को नीलावि स्वरूप मानने पर भी दोष है कि जैसे 'घटो घट:' 'घट: कलशः' इत्यादि समानार्थक पदों का सहप्रयोग नहीं होता उसी प्रकार 'इदं नीलम्' इस प्रकार का सहप्रयोग भी नहीं हो सकेगा जब कि यह प्रयोग सर्वमान्य है ॥१०॥
११ वी कारिका में बाह्यार्थ के अभाव के सम्बन्ध में अब तक किये गये विचारों का उपसंहार किया गया है।
निगमयतिमूलम्-एवं चाऽग्रहणादेव तदभावोऽवसीयते ।
___ अनः किमुच्यते मानमर्थाभावे न विद्यते ! ॥११॥ एवं च-उकारीत्या अग्रहणादेव-अदर्शनादेव तदभावा-बाह्यार्थाभावः अवसीयते । अतः किमुच्यते-'अर्थाभावे मानं न विद्यते' इति ! नीलादी ज्ञानाभिन्नत्वग्रहे समीहितसिद्धः।
उक्त रीति से ज्ञान के अभाव में ब्राह्मार्थ के अदर्शन से ही बाहार्थ के प्रभाव की सिद्धि होती है। अतः इस कथन का कोई अर्थ नहीं है कि 'बाह्मार्थ के अभाव में कोई प्रमाण नहीं है।' क्योंकि उक्त युवितओं से नोलादि में ज्ञान का अभेद है अर्थात् नीलादि ज्ञान से अभिन्न है, ज्ञानस्वरूप ही है, यह सिद्ध होने से विज्ञानयादी को अभीष्ट विज्ञानमात्र की सत्ता सिद्ध होती है । 'बायार्थ नहीं