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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ५ श्लो०१०
ही पूछना चाहिये न कि इस कल्पना के प्राधार पर व्यवहार करने काले मनुष्य को। इस संदर्भ में यह ज्ञातव्य है कि बाह्यार्थवादी भी वास्तविक ग्राधाराधेयभाव का समर्थन नहीं कर सकते। उन्हें भी कल्पित ही आधाराधेयभाव मानना पड़ता है। अन्यथा कुण्ड और बदर (= बेर) में संयोगमात्र से वास्तविक आधाराधेयभाव मानने पर कुण्ड जैसे बदर का आधार है वैसे बदर कुण्ड का आधार हो उसमें विनिगमना नहीं प्राप्त हो सकती, पयोंकि संयोग दोनों में ही समान है। तथा जो दो द्रव्य तिर्यक् अर्थात् पार्श्व देशों से संयुक्त होते हैं उनमें प्राधाराधेयभाव का ध्यवहार नहीं होता है इसलिये भी संयोग वास्तयिक आधाराधेयभाव का निमित्त नहीं हो सकता।
यदि यह कहा जाय कि-"कुण्ड और बदर में संयोग समान होने पर भी संयोगमात्र को आधारता नहीं माना जाता किन्तु बदरप्रतियोगिकस्वविशिष्ट संयोग ही बदर की आधारता है। यतः वह संयोग कुण्ड में ही रहता है बदर में नहीं । अतः कुरड ही बदर का आधार होता है, बदर कुण्ड का आधार नहीं होता और बवर कुण्ड का प्राधार इसलिये भी नहीं होता कि कुण्ड और बदर में जो संयोग होता है वह कुण्डप्रतियोगिक नहीं होता है और कुण्ठप्रतियोमिकस्वविशिष्ट संयोग हो कुण्ड की आधारता होती है। किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि यह समाधान तब हो सकता है जब बदरप्रतियोगिकत्वविशिष्ट संयोग और शुद्ध संयोग में भेद हो। अन्यथा बदर-कुण्ड का संयोग जैसे कुण्ड में है वैसे बदर में भी है और उस संयोग में बदरप्रतियोगित्य भी है अतः जब बदर में संयोग और संयोग में धचरप्रतियोगिकत्व विद्यमान है तो बबर में बदरप्रतियोगिकत्त विशिष्ट संयोग नहीं हैयह कहना असम्भव होगा। अतः बदर में भी बदर को प्राधारता को आपत्ति अपरिहार्य होगी। जब दोनों में भेद मानना है तब यह तभी सम्भव होगा जब कुण्ड में बदर के शुद्धसंयोग और बदरप्रतियोगिक संयोग को कम से उत्पत्ति मानी जाय, क्योंकि किसी द्वध्य में एक बच्य के दो संयोग की उत्पत्ति एक साथ नहीं होती और क्रम से उत्पत्ति भी पूर्वसंयोग का नाश होने पर ही हो सकती है क्योंकि एक द्रव्य का वो संयोग किसी दय्य में एक साथ नहीं रहता किन्तु ऐसा मानने पर संयोग में क्षणभङ्ग को प्रापत्ति होगी।
__ उसके अतिरिक्त दूसरा दोष यह भी है कि संयोग में बरप्रतियोगिकत्वादि क्या है उसका विवेचन भी नहीं हो सकता है । क्योंकि बदरप्रतियोगिफत्व का अर्थ यदि बदरवृत्तित्व किया जायगा तो बदरवृत्तिश्वविशिष्ट संयोग बदर में ही रहेगा न कि कुण्ड में अतः बदर ही स्वयं अपना प्राधार हो जायगा, कुण्ड न हो सकेगा। यदि बदरप्रतियोगिकत्व का 'सामानाधिकरप्येन बदरवशिष्टच' अर्थ किया जाय तो कुण्ड में किसी अन्य सम्बन्ध से बदर की अधिकरणता सिद्ध करनी होगी क्योंकि
|संयोग में बदर सामानाधिकरण्य का उपपादन नहीं हो सकेगा। यदि बदरप्रतियोगिकत्व का बदरजन्यत्व अर्थ किया जाय, तो बदरजन्य संयोग बदर में रहने से बदर में बदराधिकरणता का परिहार न हो सकेगा। इस प्रकार प्रतियोगिकत्व का विवेचन शक्य न हो सकने से बदरप्रतियोगिकत्व विशिष्ट संयोग को बदराधारतारूप नहीं माना जा सकता । यदि यह कहा जाय कि-"कुण्डादि में बदर की आधारता बदरस्वरूप होने से कुण्डादि ही बदर का प्राधार होता है बदर नहीं, क्योंकि कुण्डादि का स्वरूप बदर में नहीं रहता" तो यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि बदर के प्रति जसे कुण्ड का स्वरूप है वैसे ही करभ के प्रति भी कुण्ड का स्वरूप है, अतः कुण्डस्वरूप तो बदर और बबर से अन्य अनन्तपदार्थों के प्रति साधारण है, और साधारण होने से कुण्ड में बदर की आधारता के समान करभावि प्रन्यान्य अनन्त पदार्थों की आधारता को भी प्रसक्ति होगी। इसलिये यही मानना न्याय