________________
४४ ]
[ शास्त्रवार्ता स्त० ५ श्लो० १२
विज्ञान बाह्यार्थ का निश्चायक होते हये स्वसंवेद्य होता है। क्योंकि 'नीलमहं वेधि' =मैं नोल को जानता है इस प्रकार ज्ञान से भिन्न नीलादि अर्थ के ग्रहण रूप में विज्ञान की अनुभूति होती है । प्रतः विज्ञान के इस प्रकार के अनुभव में बादार्थ का भान होना क्यों नहीं उपपन्न होता है ? सच बात तो यह है कि ज्ञान के ऐसे अनुभव में बाह्यार्थ का भान होता ही है, क्योंकि बाह्यार्थ को माने विना स्वसंवेदीरूप में अभिमत ज्ञान की ही उपपति नहीं हो सकती । ध्याख्याकार ने योगाचारमत के खंडन का उपक्रम फरले हये परिहास की सुन्दर शैली में कहा है कि 'सभासद विद्वानों को यह देखना चाहिये कि जैसे खलहिताहित के विवेक को न समझने वाला व्यक्ति, निष्कारण ही द्वेष करने लगता है उसी प्रकार योमाचार ने भी अर्थ के साथ वेष प्रदर्शित किया है, और ऐसा लगता है कि उसके अर्थवष को जान कर ही विचार सभा में अब उसके पक्ष में अनर्थ उपस्थित होने जा रहा है । जो इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है
योगाचार का यह कहना कि-'ज्ञान से भिन्न वस्तु ज्ञान का विषय नहीं होती अतः ज्ञान का विषयभूत अर्थ नाम भन्न नहीं हो स की नहीं है गयोंकि तद्विषयता का व्यवहार तभेदनियत होता है अर्थात् तद्भिन्न में ही तद्विषयता का व्यवहार होता है। योगाचार ने जो दूसरी बात यह कही थी कि -"ग्राहाकार और ग्राहकाकार में भेव नहीं होता'-वह भी ठीक नहीं है क्योंकि दोनों का स्वरूपभेद प्रत्यक्ष सिद्ध है।
[ एक ही ज्ञान अनेकाकार भी हो सकता है ] किन्तु ग्राह्याकार और ग्राहकाकार के भेद में साक्षीरूप से बाहार्थवादी बौद्ध का यह कथन कि-'ग्राह्यरकार और ग्राहकाकार का स्वरूप भेद प्रत्यक्षसिद्ध है इसलिये नीलाकार अहमाद्याकाररूप नहीं होता है'-ठीक नहीं है क्योंकि अनेक आकारों से युक्त एक विज्ञान स्वीकार न करने पर नीलधवलादि के ग्राहक चित्र ज्ञान को उपपत्ति न हो सकेगी। यदि इसके विरुद्ध बाह्यार्थवादी बौद्धों को प्रोर से यह कहा जाय कि नील-धवलादि का एक जान नहीं होता किन्तु क्रम से भिन्न भिन्न ज्ञान उत्पन्न होते हैं-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर नीलादि एकक अथं के ज्ञान को भी उपपत्ति न हो सकेगी, क्योंकि नोलादि के ज्ञान में नौलत्वादि का भी भान होता है। अतः नीलधवलादि अनेक अर्थों के ग्राहक एक ज्ञान का अपलाप किया जायगा तो नीलादि और नोलत्यादि के प्राहक एक ज्ञान का भी अपलाप, समान होने से परिहार्य न हो सकेगा। तो इस प्रकार जब चित्रझान मानना आवश्यक है तो जैसे ज्ञान चित्र त्मक होता है से ही अर्थ की चिनात्मकता=अनेकान्तरूपता अनिवार्य होगी। क्योंकि ग्राह्य और ग्राहक का भेद सत्य रूप में प्रतिभासित होता है अतः ग्राहक से भिन्न ग्राह्य की सत्ता है और ग्राह्य अनेकान्तरूप है ।
___ योगाचार की ओर से जो यह कहा गया था कि-'ग्राहकाकार और ग्राह्याकार का विभक्तरूप में ग्रहण न होने से उनका भेद सत्य नहीं है" वह भी निरस्त है। क्योंकि ग्राहाकार और ग्राहकाकार इन दोनों का. असंभेव=परस्परानुपराग रूप से अनुभव होता है अतः यह अनुभव ही दोनों के मेद का साधक है। ग्राह्याकार और ग्राहकाकार के समान जो प्रकाश और प्रकाशता में भेद की प्रसक्ति योगाचार द्वारा आपारित की गई थी यह भी नहीं हो सकती क्योंकि उन दोनों का परस्परानुपरागरूप असंमेद के साय अनुभव नहीं होता।