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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ६ श्लो० २८
से भिन्न अर्थक्रियानिष्ठ होगा अतः 'अर्थक्रिया में अर्थक्रियाजनक का सामर्थ्य है' यह कहना अयुक्त है । यदि यह कहा जाय कि - ' दण्डादि से जो घटादि का उत्पाद होता है वही घटादि में दण्डादि का सामर्थ्य है उससे भिन्न नहीं है और घटादि का उत्पाद घटादिनिष्ठ हो है अत: जनकसामध्ये अर्थक्रियानिष्ठ होने में कोई बाधा नहीं है' । तो यह कथन अर्थात् दण्डादि से घटादि के उत्पाद का अभ्युपगम घटादिरूप से भवनशील किसी उपादान कारण को बिना माने न्यायतः सिद्ध नहीं हो सकता । जब कोई ऐसा उपादान कारण माना जायगा तो उसका उत्तरभावी कार्य में श्रन्वय होने से नाथ की अपरिहार्य निरन्वयनश्वरतारूप क्षणिकता का साधन नहीं हो सकता ।। २७ ।।
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२८ वीं कारिका में पूर्वकारिका के उत्तरभाग में कथित अर्थ को घटादि रूप से भवनशील उपादान कारण माने बिना दण्डादि से घटादि का उत्पाद असम्भाव्य है - इस विषय को स्पष्ट किया गया है
एतदेव स्पष्टयति
मूलम् - नासत्सज्जायते यस्मादन्यसत्त्वस्थितावपि ।
तस्यैव तु तथाभावे नन्वसिडोऽन्वयः कथम् ? ||२८|| यस्मादन्यसवस्थितावपि किमुत तन्निवृत्तौ असत् सद् न जायते तच्छक्त्यभावेनातिप्रसङ्गात् । तस्यैव च पूर्वक्षणस्य, तथाभावे - उत्तरक्षणरूपतया भरने, ननु निश्चितम् अन्वयः कथमसिद्धः, भावाऽविच्छेदस्यैवान्यत्वात् १ ||२८||
[ असत् सत् नहीं होता ]
अन्यभाव अर्थात् कार्यरूप से भवनशील भाव के स्थित होने पर भी असत् यानी कारणात्मना अविद्यमान पदार्थ सत् नहीं होता उत्पन्न नहीं होता जैसे सृपिड के प्रभाव में घटरूप से भवनशील दण्ड- चक्रादि के रहने पर भी दण्ड- चक्राविरूप में असत् घट की उत्पत्ति नहीं होती । तो फिर ऐसे अन्य भाव को निवृत्ति होने पर असत् की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? अतः बौद्ध का यह मन्तव्य कि- 'उत्तरभाव अपने से सर्वथा भिन्न पूर्वभाव को निवृत्तिकाल में उत्पन्न होता है'--अयुक्त है। क्योंकि जो कारणरूप में असत् होता है उसमें कार्यरूप से उत्पन्न होने की शक्ति नहीं होती । उस शक्ति के अभाव में भी उत्पत्ति मानने पर खपुष्पादि के भी उत्पत्ति का प्रसंग होगा । एवं सर्वत्र सब की उत्पत्ति का अतिप्रसंग होगा क्योंकि जैसे उत्तरभाव पूर्वभावरूप से असत् होने पर भी उत्पन्न होता है उसी प्रकार खपुष्प असत् होने पर भी उत्पन्न हो सकता है। तथा जैसे मृत्पिंडरूप से असत् भी घट मृत्पिड में उत्पन्न होता है उसी प्रकार तन्तु आदि रूप में असत् होने से तन्तु आदि में भी उसकी उत्पत्ति का अतिप्रसंग हो सकता है क्योंकि मृत्पिंड और तन्तु दोनों में असब समान है । यदि उक्त दोष के भय से पूर्वक्षण का ही उत्तरक्षणरूप में भवन माना जायगा तो निश्चितरूप से उत्तरभाव में भाव का विच्छेदरूप] अन्वय होने से कार्य में कारण का अन्यय प्रसिद्ध कैसे होगा ? ॥२८॥
२६ वीं कारिका में बौद्धमत में एक अन्य दोष प्रदर्शित किया गया हैदोषान्तरमाह