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स्थाक० टोका एवं हिकी विवेचा
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मूलम्-भूतिर्येषां क्रिया सोक्का न चासौ युज्यते कचित् ।
का भोक्तृस्वभावत्वविरोधादिति चिन्त्यताम् ॥२९॥ या एषां प्रस्तुतभावानाम् भूतिः सा क्रियोक्ता भवता । न चासौं-भूतिः न्यायतः क्वचिद् युज्यते । कथम् ? इत्याह-क-भोक्तुस्वभायत्त्वविरोधात ; तथाहि-सा कि कर स्वभावा वा स्यात्, भोक्तुस्वभावा वा ? । कत स्वभावत्वे न भोक्तृत्वम् , भोक्तृस्वभावत्वे च न कत त्वं स्यात् । न च 'कत स्वभावस्वमेव भोक्स्व भावत्वम्', घट-कलशादिपदानामिव कन भोक्तपदयोरभिन्नप्रतिनिमित्तकत्वेन पर्यायत्यापातान्, चरमस्य कत लाभावाच्च, भावे वा चरमत्वविरोधात् । न चादी कत स्वभावैव, अन्ते च भोक्तृस्वभावा, अन्तरा तूभयस्वभावेति वाच्यम् द्वैरूप्यविरोधादिति चिल्ल्यता सूक्ष्मधिया ॥ २६ ॥
[भूति ही क्रिया है-इस पक्ष में दोषापत्ति ] मावों की भूति को बौद्धमत में किया कहा गया है-अर्थात बौद्ध को यह मान्यता है कि संसार केवल विभिन्न क्रिया सन्तानों का पुञ्ज है- अर्थात् जगत में किया का ही अस्तित्व है-कर्ता का नहीं । जैसे यह कहा जा सकता है कि संसार में जनन क्रिया होती है किन्तु जनन क्रिया का कोई फर्ता नहीं होता उसी प्रकार मरणक्रिया भी होती है-उसका भी कोई कर्ता नहीं होता एवं ज्ञानादि क्रिया होती है उनका भी कोई कर्ता नहीं होता क्योंकि कर्ता का अस्तित्व मानने पर स्थिरवाद का प्रवेश हो जाता है तो इस प्रकार भतिक्रिया का भी प्राश्रयमत कोई भावात्मकपदार्थ नहीं है किन्तु भतिक्रिया ही है । इस स्थिति में बौद्ध मत में यह दोष प्रसक्त होता है कि क्रिया न्यायतः किसी के स्वभावरूप में सिद्ध नहीं हो सकती क्योंकि क्रिया से अतिरिक्त का अस्तित्व बौद्धमत में मान्य नहीं है। यदि यह कहा आय कि बौद्ध मत में भी का और भोक्ता व्यवहारसिद्ध है अत एव उसके स्वभाव रूप में निया की सिद्धि हो सकती है-लो यह ठीक नहीं है क्योंकि कर्तृ स्वभावत्व और भोक्तृस्वभावत्व में विरोध है। जैसे--भूतिक्रिया को कर्तृ स्वभाव माना जाय या भोवतस्वभाव माना जाय ? कर्तृ स्वभाव मानने पर भोक्तृस्वभावता नहीं होगी और भोक्तृस्वभाव मानने पर कर्तृ स्वभावता नहीं होगी, क्योंकि कर्तृ स्वभावभूति और भोक्तृस्वभावभूति विभिन्नकालिक होती है। यदि कर्तृ स्वभावत्व और भोक्तस्वभावत्व को अभिन्न मान लिया जाय तो घट-कलश आदि पद के समान कर्तृपद और भोक्तृपद का प्रवत्ति निमित एक हो जाने से उनमें पर्यायवाचिता को आपत्ति हो जायगी। इसके अतिरिक्त दूसरा दोष यह होगा कि चरम भाव में कर्तृत्व न हो सकेगा। जिसमें कर्तत्व होगा वह भाव चरम न हो सकेगा। यदि इन दोषों के परिहार के लिये यह कहा जाय कि 'याद्यभूति कर्तृ स्वभाव होती है और अन्त्यमूति भोक्तृस्वभाव होती है और मध्यवर्ती भूति कर्तृ मोक्तृ उभयस्वभावा होती है'-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि इसमें एकभूति में व्यापारात्मकत्व और भोगात्मकत्व ऐसे विरुद्धरूपद्धय को प्रसक्ति होगी। क्योंकि कर्ता के अभाव में व्यापारात्मक-फर्मात्मक क्रिया ही कर्तृ स्वभाव होती है और व्यापाररूप किया और भोगरूप क्रिया में भेद है । अतः एक क्रिया को कर्तृ और भोक्तृस्वभाव मानने में विरोध स्पष्ट है।
३. वीं कारिका में अब तक किये गये विचारों का उपसंहार किया गया है -
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