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[ शास्त्रया० स्त० ५ श्लो० १२ ।
संगत नहीं है, क्योंकि सहोपालम्भ शब्द के जो अर्थ सम्भव हैं उनमें कोई भी दोषमुक्त नहीं हैं । जैसे सहोपलम्भ के तीन अर्थ सम्भाध है-१. युगपद (एक साथ उपलम्भ, २.क्रमिकोपलम्भ ३. एकोपलम्भ ( अथवा एकविषयकोपलम्भ)। प्रथम अर्थ को स्वीकार करने पर यह नियम बनेगा कि जिन पदार्थों का युगपदुपलम्भ होता है उनमें अमेव होता है'-किन्तु यह नियम व्यभिचारग्रस्त है क्योंकि बुद्ध को स्वचित्त और सन्तानान्तरवर्ती चित्तों का युगपर उपलम्म होता है किन्तु दोनों में प्रभेद नहीं है। इस विषय में 'धर्मोत्तर' के अनुयायिओं का समाधान यह है कि-'युगपदुपलम्भ नियम से ज्ञानोपलम्भ में जयोपलम्भ का और जेयोपलाभ में ज्ञानोपलम्भ का अभेद अभिमत है । इस नियम के फलस्वरूप ज्ञेय और ज्ञान का ऐक्य सिद्ध होता है। बुद्ध के ज्ञान में यह नियम नहीं है अर्थात् उनके ज्ञानोपलम्भ और जेयोपलम्भ में अथवा योपलम्भ और ज्ञानोपलम्भ में अभेद नहीं है । क्योंकि बुद्ध को स्वचित्त और सन्तानान्तरवत्तिचित्त का पृथक संवेदन होता है ।'-किन्तु यह समाधान ठीक नहीं है क्योंकि युगपदुपलम्म नियम का उक्तार्थ में अभिप्राय मानने पर यह ध्याप्ति फलित होती है कि--"जो जेय जिस ज्ञान के उपलम्भ के साथ अवध्यमेव उपलब्ध होता है वह शेय उस ज्ञान से अभिन्न होता है।"-किन्तु इसमें बाघ है, क्योंकि विज्ञानवादी के मत में ज्ञान पारमाथिक होता है और जेय सांवृत्त=आविद्यक-अधिद्याकल्पित होता है और दोनों का उपालम्भ नियमेन साथ ही होता है। अत: उक्त व्याप्ति के अनसार पारमाथिकान में सांवत- अपारमाथिक जेय के प्रो मान करने में बाघ अनिवार्य है । यदि उक्त नियम का पर्यवसान इस व्याप्ति में माना जायगा कि-जो ज्ञेयोपलम्भ जिस ज्ञानोपलम्भ का नियमेन सहभावी होता है वह ज्ञेयोपलम्भ उस ज्ञानोपलम्भ से अभिन्न होता है और इस प्रकार शेयोपलम्भ और शानोपलम्भ में ऐक्य सिद्ध कर के एकोपलम्भविषयत्व से ज्ञेय-शान में ऐक्य का साधन माना जायगा तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उसमें पूर्वोक्स दोष-अर्थात् बुद्ध के सन्तानान्तरवर्ती चित्तोपलम्भरूप ज्ञयोपलम्भ में बुद्धचित्तात्मक ज्ञानोपलम्भ का नियत सहभाव होने पर भी उन उपलम्भों में अभेद न होने से पूर्वोक्तव्यभिचार की निवृत्ति नहीं होती।
[व्याप्ति में पुरुषाभेद के प्रवेश करने पर अनिष्ट ] यदि यह कहा जाय कि अनन्तरोस्त व्याप्ति के शरीर में ज्ञेयोपलम्भ और ज्ञानोपलम्भ में यत्पुरुषोयत्व का निवेश कर उसे पुरषभेद से नियन्त्रित कर देने पर बुद्ध का अन्तर्भाव कर के उक्त क्याप्ति में प्रब व्यभिचार दोष नहीं हो सकता-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि उक्त ध्याप्ति जब बुद्धोपलम्भ साधारण न होगी तो बुद्ध का ज्ञान जैसे अपने से भिन्न सन्तानान्तरवर्तीचित्त का ग्राहक होता है वैसे ही ज्ञान किसी प्रत्यासत्तिविशेष यानी योगजप्रत्यासत्ति से स्वभिन्न ज्ञेय का भी ग्राहक हो सकता है अतः शान से भिन्न ज्ञेय की सिद्धि अनिवार्य हो जायगी। यदि ज्ञेय का ग्राहक न माना जायगा तो बुद्ध को सर्वज्ञता का भङ्ग होगा। इस पर किसी विद्वान् का यह कहना है कि--"बुद्ध की सर्वज्ञता का अर्थ सर्वविषयक ज्ञान को आश्रयता नहीं है किन्तु 'ग्राह्याकार और ग्राहकाकार ये दोनों वासनामूलकज्ञान के कलङ्क है। इन कलङ्गों से मुक्त विशुद्धज्ञानात्मकता' ही सर्वज्ञता है, अतः मेथ का अग्राहक होना बुद्ध की सर्वज्ञता को अनुकूल हो है।'-किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि सभी वस्तुमों का अज्ञान अर्थात् किसी वस्तु का भी ज्ञान रहने पर 'सर्वज' पद का अर्थ हो नहीं घटित हो सकता, अत: यह कथन निसान्त तुच्छ है ।