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[ शास्त्रवाता० स्त० ५ श्लो १७
युक्त्ययोगवार्थम्य यः पर महता प्रबन्धेन, जातिवादतः-अनुभव विरुद्धवादेन, गोयनेस्वेच्छामात्रेण प्रकल्प्यते, असा युक्त्ययोगः, ग्रात्यादिमावद्वारेण-वक्ष्यमागलक्षणेन बाधादिभाव विकल्पेन ज्ञानवादेऽपि समः, तत्पशनिराकरणव्यापाराविशेषात् ॥१६॥
[अर्थ विरोधी युक्तियाँ ज्ञान के विरोध में समान है ] 'अर्थ को ज्ञानभिन्न सत्ता प्रमाणित करने के लिये कोई उचित युक्ति नहीं है। यह बात जो विज्ञानवादियों की प्रोर से असद उत्तररूप में अनुभवविरुद्धवाद का आश्रय लेकर बडे विस्तार से
की इच्छानुसार कही गयी, यह बात ज्ञान के सम्बन्ध में भी समान है। ज्ञान के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि ज्ञान को सता को प्रमाणित करने के लिये भी उचित युक्ति का प्रभाव है क्योंकि उसके पक्ष में भी 'वह ग्राह्यरूप है ? अथवा प्राहकरूप है ?' ऐसे विकल्पों को उठाकर ज्ञान को सत्ता के निराकरण का भी प्रयत्न उसी प्रकार हो सकता है जैसे ज्ञान भिन्न अर्थ की सत्ता के निराकरण का प्रयास हुआ है ॥१६॥
१८वीं कारिका में पूर्व कारिका में किये गये संकेत अनुसार ज्ञान के सम्बन्ध में सम्भावित विकल्पों की प्रसंगति बताने का उपक्रम किया गया है
अत्र ज्ञानं हि ग्राह्यमात्रस्वभावम् , ग्राहकमात्रस्वभावम् , उभयस्वभावम् अनुभवस्वभावं वा स्यात् ? इति विकल्प्याह
मूलं-नैकान्तग्राह्यभावं तद् ग्राहकामावतो भुचि ।
ग्राहकैकान्तभावं तु ग्राह्याभावादसंगतम् ॥११॥ नैकान्तग्राह्यभावं तत्-न सर्वथा ग्राह्यस्वभात्र ज्ञानम् । कुतः ? इत्याह-भुवि पृथिव्याम् , ग्राहकाभावतात्राहकस्वभावस्य कस्याप्यभावात् । संबन्धिशब्दश्वायं न संबन्ध्यन्तरेण बिना प्रवतंत इति । अत एव ग्राहकैकान्तभावं तु-सर्वथा प्राह कस्वभावं तु, प्राधाभारादसंगतम् अयुक्तमेतत् । न हि ग्राहकस्वभावाज्ज्ञानाद् ग्राह्य किश्चिदन्यदन्ति, यदपेक्षया नियतस्वभावतां विभृयादिमिति भावः ॥१७॥
[ ज्ञान के सम्बन्ध में विकल्पों की समीक्षा ] ज्ञान के सम्बन्ध में ४ विकल्प सम्भावित हैं। (१) एक यह कि ज्ञान केवल ग्राह्यमात्रस्वभाव है। (२) दूसरा, ज्ञान केवल ग्राहकस्वरूप है। (३) तोसरा ग्रााग्राहक उभय स्वभाव है। (४) अनभय-अग्रान-अम्राहक स्वभाव है। इनमें दो विकल्पों का निराकरण प्रस्तुत कारिका में इस प्रकार किया गया है कि-ज्ञान को केवल ग्राह्य स्वभाव नहीं माना जा सकता क्योंकि विश्व में ग्राहकस्वभाव ज्ञान से अतिरिक्त किसी पदार्थ में न होने से ज्ञान में ग्राह्यस्वभाव की सिद्धि नहीं हो सकतो, क्योंकि ग्राह्य-ग्राहक ये दोनों शब्द सम्बन्धो-धोतक शब्द हैं । एक सम्बन्धि की सम्बन्धिता भिन्न दो पदार्थों के बिना सम्भव नहीं है। इसीलिये ज्ञान को केवल ग्राहकस्वभाव भी मानना युक्तिसंगत नहीं हो सकता क्योंकि ग्राहक के विना जैसे ग्राह्य को उपपत्ति नहीं हो सकती इसी प्रकार ग्राह्य के बिना