________________
स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन |
1
विषय होता है और दर्शन निरंश है। इसलिये उस दर्शक बोध का अद्वयत्व अमेद उसके faranीलादि में है । इस प्रकार नोलादि का ज्ञानाद्वयत्व-ज्ञानाऽभिन्नरूप में ही वर्णनात्मक अनुभव होता है । किन्तु नाम जात्यादि द्वारा नीलादि के भ्रमात्मक बोध के वासनात्मक बीज का अनुवर्तन होने से बौद्ध दर्शन अनुसार उसका अध्यवसाय नहीं होता है। अतः दर्शन द्वारा गृहोत = अनुभूत होने पर भी अगृहीत प्रननुभूत के समान हो जाता है इसलिये नीलादि का ज्ञानाsयरूप से प्रननुभव कहा जाता है । किन्तु वस्तुतः ज्ञानाहयरूप में नीलादि की अननुभूति नहीं है, क्योंकि नोलादि का ज्ञानाभित्र रूप में जो प्रथम दर्शन होता है यह भी अनुमय है और वही वस्तुत: प्रमाण है। अतः नीलादि का ज्ञानाभिज्ञरूप में प्रसत्व नहीं हो सकता"तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि नीलादि के ज्ञानाद्वयरूप में अनुभव को प्रतीति नहीं होती है किन्तु ज्ञानरूप में ही नीलादि का अनुभव प्रतीयमान होता है। क्योंकि 'नीलं पश्यामि' इस प्रकार का अनुभव सर्वमान्य है । यह अनुभव नीलारि और उसके ज्ञान में भेदनियत कर्म क्रिया भाव का ग्राहक होने से नीलादि का ज्ञानद्वय-ज्ञानभिरूप में अनुभव सिद्ध होता है । फिर इस अनुमसिद्ध द्वयानुभव का अपलाप कर यदि ज्ञान अगोचर ( अप्रतीयमान) अद्वयानुभव का समर्थन किया Start तो अन्यत्र भी अतिप्रसङ्ग होगा। जैसे -यह भी कहा जा सकता है कि नीलाद्याकार बोध अनुमान होने पर भी असत् है, किन्तु उससे भिन्न प्रकार का हो खोत्र दर्शनात्मक अनुभव से गृहीत होता है । किन्तु वह अन्य प्रकार का बोध दर्शनानुसार अध्ययसित नहीं होता, क्योंकि नीलावि arrer उसके भ्रम का बोज अनुवर्त्तमान रहता है । फलतः नीलाथाकार बोध की भी सिद्धिन हो सकेगी।
६५
[ ज्ञान और अर्थ में अनुमान से अद्वयत्व की सिद्धि अशक्य ]
यदि यह कहा जाय कि नीलादि में ज्ञानाद्वयत्व अनुमान से सिद्ध होगा जैसे 'चंत्र से ज्ञायमानघटादि तंत्रीयज्ञान से अभिन्न है क्योंकि चत्रादि ज्ञान के साथ ही नियम से उपलब्ध होता है अर्थात् चत्रीयज्ञान को विषय न करने वाले ज्ञान का विषय है, जैसे चंत्रीयज्ञान का अपना स्वरूप"तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि जैसे विज्ञानवादी ने यह कहा था कि अनुमान से स्वदृष्ट और परहृष्ट नीलादि में अभेद सिद्धि नहीं होती है, उसी प्रकार साक्षात्क्रियमाण और अनुमीयमान में भेद होने से उनमें श्रद्धय का अनुमान नहीं हो सकता । अन्यथा नीलादि में ज्ञानभित्र का और स्वदृष्ट परहृष्ट नीलादि में ऐक्य का अनुमान भी सुवच हो सकेगा। अत: ज्ञान और नीलादि में अनुमान द्वारा अद्वयत्व को सिद्ध करने की चेष्टा अकिश्वित्र है ।। १५ ।।
विज्ञानवादी की थोर से जो यह कहा गया था कि ज्ञानभिन्न अर्थ को सत्ता की सिद्ध करने में युक्ति का अभाव है, १६वों कारिका में ज्ञान के विषय में भी उसकी तुल्यता का प्रतिपादन किया गया है
यश्चार्थे युक्त्ययोग *उक्तस्तस्य ज्ञानेऽपि तुल्यतामुपदर्शयन्नाह -
मूलं- युक्त्ययोगश्च योऽर्थस्य गोयते जातिवादतः । ग्राह्यादिभावद्वारेण ज्ञानवादेऽप्यसौ समः ॥ १६॥
* 'विज्ञानं यत्स्वसंवेद्य' इति दशम्या कारिकया।