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[ शास्त्रवास्ति०५ श्लो०१५
सिद्ध है क्योंकि अब एक समय शुक्ति में अनेक पुरुषों को रजत का दर्शन होता है तब उस में जिस पुरुष को पहले बाधज्ञान हो जाता है उस का दृश्यमान रजत निवस हो जाता है किन्तु उस समय भी अन्य व्यक्तियों को रजत का दर्शन होने से अन्य व्यक्तियों को दृश्यमान रहता है अतः जैसे यहां दृष्टा के भेद से दृश्य का भेव होता है उसी प्रकार सर्वत्र दृष्टा के भेद से इश्य का भेद माना जा सकता है। अत: जैसे एक मनुष्य का ज्ञान दूसरे मनुष्य से गृहीत नहीं होता अतः एक मनुष्य के ज्ञान और उस के विषय मूत घट-दोनों में अन्य मनुष्य को अगह्यमाणता में कोई अन्तर न होने से ऐसा अनुमान हो सकता है कि एक मनुष्य से गृहीत होने वाला घट उस मनुष्य के ज्ञान से अभिन्न है क्योंकि अन्य मनुष्य को वह अहश्यमान है-जैसे अन्य मनुष्य से अदृश्यमान पूर्व मनुष्य का ज्ञान । इसलिये ज्ञान और घटादि में अभेव आवश्यक है।"
( पूर्वचित्तसत्तावत् अर्थसत्ता का समर्थन-उत्तर पक्ष ] तो यह युक्ति भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे अन्य सन्तानवृत्ति ज्ञान-चित्त का अन्य विज्ञानअन्य सन्तान से संवेदन न होने पर भी जैसे पूर्व चित्त को सत्ता विज्ञानवादी में भी मान्य है उसी प्रकार अर्थ की भी सत्ता का समर्थन हो सकता है। यदि समानान्तर से अनुपलभ्यम कारण ही एक सन्तान से उपलभ्यमान घटादि को असत् माना जायगा तो सन्तानान्तरवत्ति चित्त के भी असत्त्व को प्रसक्ति होगी। आशय यह है कि-'जो चैत्रेतर मनुष्यों से अदृश्यमान है वह चौतर मनुष्यों से अदृश्यमान दूसरी वस्तु से भिन्नरूप में असत् है। इस व्याप्ति पर हो चैत्र से दृश्य मान घटादि की चैत्र के ज्ञान से भिन्न रूप में असत्ता का साधन अवलम्बित है। किन्तु यह व्यास्ति मानने पर विज्ञानवादी को सन्तानान्तरवृत्ति चित्त का भी असत्त्व स्वीकार करना पड़ेगा। क्योंकि चैत्रात्मक चित्तसन्तान चैत्रेतर मनुष्यों से अदृश्यमान है अतः चैत्रतर मनुष्य से अदृश्यमान चैत्रात्मकसन्तानवृत्ति चैत्र वर्मों से भिन्न रूप में उसको सत्ता न होसकेगी। यदि उक्त च्याप्ति में पत्रेतर मनुष्यों से अदृश्यमान में चत्रेतर मनुष्य से अदृश्यमान के विजातीय रूप में प्रसत्व का व्यापक विधया प्रवेश करके यह कहा जाय कि-चैत्रात्मक चित्त सन्तान में चैत्रात्मक सन्तानवृत्ति चैत्र के विजातीय रूप में उक्त चित्त को सत्ता न होने से उक्त दोष नहीं हो सकता और चैत्र से दृश्यमान घटादि में चैत्रगत शान के विजातीयरूप में घट असत्ता सिद्ध होने से बाह्यार्थ के अभाव की सिद्धि हो जायगी तो यह कथन विज्ञानवादी के लिये उपयुक्त नहीं हो सकता क्योंकि उसके मत में जाति को सत्ता प्रसिद्ध है।
[ ज्ञानभिन्नत्वरूप से अनध्यवसित नीलादि असत् होने की शंका का उत्तर ]
यदि यह कहा जाय कि-"जो जिस प्रकार से उपलभ्यमान-दृश्यमान होता है, यदि उस प्रकार से वह अनुपलभ्यमान =अनध्ययसित है तो वह उस रूप से असत् होता है-यह व्याप्ति है। इसके अनुसार नीलावि पदार्थ के दर्शन को यदि ज्ञानभिन्न नीलादि का ग्राहक माना जाय तो भी जानभिन्नत्वरूप से नीलादि को सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती। क्योंकि ज्ञानभिन्नत्वरूप से यह उपलरध= अध्यवसित नहीं होता।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर नीलादि प्राकारों का भी ज्ञानाऽनुयत्वज्ञानाभिन्नत्व रूप से अभान हो जायगा-क्योंकि ज्ञानभिनत्वरूप से उसका अध्यवसाय नहीं होता। इस पर विज्ञानवादी को प्रोर से यदि यह कहा जाय कि-नीलादि पदार्थ निरंशत्व रूप अद्वयस्वशाली बोधरूप में दर्शन द्वारा गृहीत होता है अर्थात् नीलादि दर्शन का