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है सो आपका मत स्वयं अप्रमाण घोषित हो जाता है। शून्यता साधक प्रमाण को ही केवल माना जाय तो भी इष्ट सिद्धि नहीं होगी क्योंकि प्रमाण प्रतिपादन के लिये प्रतिपाद्य, जिसके प्रति शून्यता का प्रतिपादन किया जाता है वह भी मानने के लिये बाध्य होना पड़ेगा अन्यथा प्रतिपादन का परिश्रम ही व्यर्थ हो जायगा। प्रतिपाद्य को मानेंगे तो प्रश्नकर्ता इत्यादि अनेकों को भी मानना ही होगा। इस प्रकार शून्यता ही शून्य हो जायगी। का०६२ की व्याख्या में पुनः ध्याख्याकार ने विस्तार से शून्यवाद का पूर्वपक्ष स्थापित करके अन्त में उसका सयुक्तिक निराकरण कर दिया है । ग्रन्थकार ने अन्त में का० ६३ में शून्यवाद का तात्पर्य यह दिखाया है कि तथा प्रकार के विनेय शिष्य का इसी में प्रानुगुण्य=हित देख कर शून्यवाद का उपदेश दिया गया है।
इस प्रकार स्तबक ४-५-६ में बौद्धमत का विस्तत पूर्णपक्ष और ग्रन्थकार का उत्तर पक्ष प्रतिपादित है । विस्तृत विषयसूचि देखने से सदों को विशेष जिज्ञासा पूत्ति हो सकेगी।
प्रस्तुत विभाग के अभ्रान्त सम्पावन में प० पू० सिद्धान्त महोदधि स्व. आचार्यदेव श्रीमद विज मसरश्वरजी महाराज, एवं उनक पटालंकार न्यायविशारद प.प. आचार्यदेव श्री विजय भुवनमानुसूरीश्वरजी महाराज, तथा उनके प्रशोज्य गीतार्थरत्न आचार्यकल्प पू० पंन्यास श्री जयघोषविजयजी गणिवर्य की महती कृपा साधन्त अनुवर्तमान रही है जिसके प्रभाव से यह विभाग स्तबक ५-६ सम्पादित-प्रकाशित हो कर अधिकृत मुमुक्षुवर्ग के करकमल में सुशोभित हो रहा है। आशा है, इस विभाग के अध्ययन से हम सब एकान्तवाद का परित्याग कर अनेकान्तवाद को उपासना कर के मुक्तिपथ पर शीघ्र प्रयाण करें।
वि० सं० २०३९ अहमदाबाद (गुजरात)
---जयसुन्दर विजय