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इन चारों विकल्प का खण्डन किया गया है। दूसरे हेतु अर्थक्रियासमर्थत्व के लिये कहा है कि क्षणिक भाव क्षणमात्रस्थायी होने से उससे अर्थक्रिया की शक्यता ही नहीं हैं, क्योंकि अर्थक्रिया न तो स्वजनक स्वरूप हो सकती है, न तो स्वजनकान्यरूप हो सकती है । ३० वीं कारिका की व्याख्या में स्थिर पदार्थ सेक्रम से और युगपद् अर्थक्क्रिया का सम्भव न होने से क्षणिक में उनको विश्रान्ति होती है इस बौद्ध अभिप्राय का विस्तार से निराकरण किया गया है, तथा सामग्री पदार्थ की समीक्षा भी मननीय है ।
परिणाम हेतु के निराकरण में कहा गया है कि बाल-कुमारादि अवस्थाओं के विभिन्न होने पर भी शरीरावि भाव सर्वथा परिवर्तित नहीं होता किन्तु विद्यमान रहता हैं। क्योंकि परिणाम को यह व्याख्या शिष्टमान्य है कि 'सर्वया अर्थान्तर भाव को प्राप्त न हो जाना और कुछ अंश में प्रर्थातर भाव को प्राप्त होना' यही परिणाम है । श्रतादवस्थ्य यह अनित्यता का लक्षण नहीं है। क्षीर और वधि में गोरस के धन्बय से परिणाम का समर्थन किया है । का० ३७ की व्याख्या में वस्तु की स्थिरता सिद्ध करने पर भी वह नित्याऽनित्य क्यों मानी जाय ? इस वैशेषिकों के प्रश्न का सपूर्वोत्तरपक्ष विस्तृत समाधान दिया गया है। ३ से, तित्यानित्य उभयस्वरूप वस्तु न मानने वाले वैशेषिकों के प्रति चित्ररूप की एकानेकरूपता प्रस्तुत की गयी है। यहाँ प्रसंगतः दार्शनिकों में अति विवादास्पद चित्ररूप को विस्तृत मीमांसा व्याख्याकार के अप्रतिम बुद्धि कौशल का साक्षी है ।
'अन्ते क्षक्षण' इस चतुर्थ हेतु के प्रतिक्षेप में [ का० ३८ ] कहा गया है कि भावमात्र तथास्वभाव यानी 'अन्त में नष्ट हो जाना' इस प्रकार के हो स्वभाववाला होता है अतः क्षणिकत्वसिद्धि प्रयुक्तिक है। यदि प्रारम्भ में हो उसका नाश मानें तो अन्तकाल में नाशदर्शन की उपपत्ति नहीं होगी। यह जो बौद्ध कहता है कि समानवस्तुग्रह से अवरोध के कारण अचरमक्षणों में नाशदर्शन नहीं होता - इसके प्रतिक्षेप में कहा है कि सादृश्य मेदानुविद्ध होता है अतः प्रतिक्षण वस्तुभेद का ग्रह न होने पर समान वस्तु ग्रह भी शक्य नहीं है।
४५ वीं कारिका से क्षणिकवाद में, क्षणिक ज्ञान से अर्थग्रह और क्षणिकत्वग्रह की अनुपपत्ति अनुमान से क्षणिकत्वग्रह को अनुपपत्ति, नित्य वस्तु में अर्थक्रियायोग को अनुपपत्ति इत्यादि दूषण दिखाये गये हैं ।
इस प्रकार स्तबक ४-५ और ६ में बौद्धमत को समालोचना पूर्ण करके उपसंहार में, बौद्ध का क्षणिकत्व-उपदेश और विज्ञानवाद का समीचीन तात्पर्य क्या हो सकता है इस पर मीमांसा करते हुये ग्रन्थकार ने यह दिखाया है कि विषयों पर होने वाली आसक्ति को तोड़ने के लिये क्षणिकत्व का उपदेश उचित है । एवं बाह्य धन-धान्यादि में सतत रत रहने वाले लोगों को ज्ञान समान महत्त्वपूर्ण गुण की ओर ध्यान खांचने के लिये ज्ञाननय का प्रश्रय लेकर विज्ञानवाद का निरूपण भी उचित है ।
५४ व कारिका से प्रत्थकार ने शून्यवादी माध्यमिक के मत की प्रालोचना का प्रारम्भ किया है। शून्यवादी कहता है-भाव न तो नित्य हो सकता है, न अनित्य । उत्पाद- नाशादि की बुद्धि कुमारी स्त्री के पुत्र 'जन्मादि के स्वप्नवत् मिथ्या है । ५६ वीं कारिका को व्यास्था में व्याख्याकार ने माध्यमिक मत र पूर्वपक्ष विस्तार से स्थापित किया है। उसका निष्कर्ष यह दिखाया है कि सर्वधर्मशून्य मध्यमक्षणात्मक संवित् ही परमार्थ सत् वस्तु हैं और कुछ नहीं । ५७ वीं कारिका से इस माध्यमिक मत का खण्डन प्रारम्भ होता है जिसमें माध्यमिक को यह पूछा गया हैं कि आपके मत में कोई प्रमाण है क्या ? यदि प्रमाण है तो वही सत् सिद्ध हो जाने से शून्यवाद का भंग होगा, यदि प्रमाण नहीं