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[ शास्त्रवा० स्त० ६ श्लो० १०
१० वी कारिका में उक्त प्राक्षेप की व्यर्थता का उपपादन किया गया हैकथम् ? इत्याहमूलम्-यस्मात्तस्याप्यवस्तुल्यं विशिष्टफलसाधकम् ।
भावहेतु समाश्रित्य ननु न्यायान्निदर्शितम् ॥१०॥ यस्मात् तस्यापि परस्यापि एतत् अस्थानपक्षपातापादनम् तुल्यं विशिष्टफलसाधक-विजातीयकपालादिक्षणजननस्वभावम्, भावहेतु घटादिकं समाश्रित्य, ननु निश्चितम् न्यायाद् निदर्शितम्-तुल्य योगक्षेमतयोपदर्शितम् । एतदुक्तं भवति-अस्थानपक्षपातित्वं यदि दण्डादिनाऽनश्वरस्वभावस्यैव घटस्योत्पादितत्वाद् नश्वरस्वभावस्य तस्य मुद्रादिनैव जनितत्वाद् घटमात्रे दशाहीन व्यभिचारित्वम् . जहा नवापि तस्य दण्डादिनाऽसमानक्षणाऽजननस्वभावस्यवोत्पादितत्वादतादृशस्य तस्यान्यन एवोत्पत्तस्तुल्यम् । अथ 'तत्रान्वेन तजननस्वभावतेव कृतेत्यदोषः', तदा ममापि तन्निवृत्तिस्वभावतैव कृतेत्यदोष इति । एवं 'स्वकार्यकारित्वमेव मुद्रादेन तु स्वकारित्वम्' इत्ययमपि परिहारस्तुल्य इत्यादि सूक्ष्मधियाऽभ्यहनीयम् ॥१०॥
[ अस्थानपक्षपात बौद्धमत में अनिवार्य-उत्तर ] बौद्ध ने उक्त जैनोक्ति के सम्बन्ध में जो अस्थान पक्षपात का आपादन किया है वह बौद्धमत में भी समान है। क्योंकि बौद्धमत में भी यह माना जाता है कि अन्त्यघटक्षण अनुपकारी मुद्गरादि की अपेक्षा से विजातोयकपालादिक्षण का जनक होता है। इस प्रकार दोनों मतों में योगक्षेम को तुल्यता न्यायपूर्वक निश्चितरूप से बता दी गई है । तात्पर्य यह है कि
यदि बौद्ध की अोर से प्रस्थानपक्षपातता इस रूप में प्रतिपादित की जाय कि दण्डादि से अनश्वरस्थभाव ही घट उत्पन्न होता है और नश्वरस्वभाव घट मुदगरादि से ही उत्पन्न होता है । जैन की ओर से इस प्रकार का विचार प्रस्तुत होने पर घटमात्र में दण्डादिकारणता का व्यभिचार होगायह व्यभिचार ही अस्थानपक्षपातित्व है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार की अस्थानपक्षपातिता बौद्धमत में भी समान है। जैसे, बौद्धमत में यह माना जाता है कि दण्डादि से कपाल प्रादि प्रसमान क्षण के प्रजननस्वभाव ही घट की उत्पत्ति होती है और कपाला विविलक्षणक्षणजनक घट की उत्पत्ति मुद्गरादि से ही होती है अत: इस मत में भी घटमात्र में दण्डादि कारणता में व्यभिचार अपरिहार्य है।
[मुद्गरादि से तत्स्वभावता का आधान उभयत्र तुल्य ] यदि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि-'मुद्गरावि से कपालजननस्वभावधटक्षण की उत्पत्ति नहीं होतो किन्तु अपने हेतु से उत्पन्न होनेवाले अन्त्य घटक्षण में कपालजननस्वभावता का प्राधान होता है। अतः उक्त व्यभिचार दोष नहीं हो सकता।'-तो इसके उत्तर में जन की ओर से भी यह कहा जा सकता है कि जैन मत में भी मुद्गरादि से नश्वरस्वभाव घट की उत्पसि नहीं