________________
स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन 1
अथ घटाऽकुर्वद्रूपत्वादेवान्त्यपटक्षणो घटं न कुरुते, कपाल पत्वात् तु कपालं कुरुत इति चेत् ? तथापि मुद्रादिनिधावेव तत्कुर्वद्रपमिति "तद्धतु०॥ इति न्यायात् स्थिरोऽपि तत्संनिहित एव कपालादिजननस्वभावो नश्वरस्वभावो वा घटोऽस्त्विति किमनुपपन्नम् ? ॥८॥
[ मुद्गदि के संनिधान विना कुचंद्रपत्व का असंभव ] यदि यह शंका की जाय कि-'अन्त्य घटक्षण में मुद्गरादि से घटजननस्वभाव का व्याघात नहीं होता अपितु उसमें घटकुर्वपस्व का अभाव होता है इसीलिये वह घट का जनक नहीं होता। और कपाल का जनक इसलिये होता है कि उस में कपालकुर्वद्रूपत्व होता है तो यह ठीक नहीं क्योंकिजब मुद्गरादि के संनिधान में हो कपालकुर्वद्रप घरक्षण का अस्तित्व होता है तब यह मानना होगा कि मुद्गरादि का संनिधान ही कपालकुचंद्रप का कारण है। ऐसी स्थिति में 'तद्धेतुतः एव कार्यसम्भवे कि तेन ?' तत् के हेतु से कार्य सम्भव होने पर तत् को कार्य का कारण मानना उचित नहीं है क्योंकि तत का हेतु अवश्यकलप्त कार्य नियतपूर्ववर्ती होता है, अत एव उससे तत्त् अन्यथा सिद्ध हो जाता है । इस न्याय से मुदगराविसंनिहित स्थिर घट को भी कपालजननस्वभाव अथवा नश्वरस्वभाव मान लेने में कोई अनुपपत्ति न होने से घटादि की क्षणिकता नहीं सिद्ध हो सकती ।।
घी कारिका में बौद्धों के अन्य अविचारित कयन को प्रदर्शित कर उसकी अयुक्तता बतायी गई है
एवं चान्यदप्यसमीक्षिताभिधानं परस्येति दर्शयन्नाहमूलम्-'अस्थानपक्षपातश्च हेतोरनुपकारिणः ।
___ अपेक्षायां नियुङ्क्ते यत्कार्यमेतद् थोदितम् ॥९॥ अस्थानपक्षपातश्च-अयमयुक्तापेक्षात्मा हेतोः घटादिजनकस्य यदनुपकारिणो मुद्गरादेरपेझायां नियुक्त कार्यम्-घटादि, तदपेशस्यैव नश्वरत्वाभ्युपगमात् । तदुक्तम्-"हेतपश्चानुपकार्यपेक्षायां नियुञ्जानाः स्वकार्यम् , आत्मनोऽस्थानपक्षपातित्वमाविष्कुयुः" इति । एतद् पृथोदितं शुभगुप्तादिना ॥ ६ ॥
[चौद्र शुभगुप्तादि के द्वारा पक्षपात का आक्षेप ] स्थिर भी घटादि मुदगरसंनिहित होकर नश्वरस्वभावनाश का जनक हो सकता है-इस जैनोक्ति के सम्बन्ध में बौद्धों का यह आक्षेप है कि-'घटादि को अनुपकारी मुद्गरादि की अपेक्षा से नाश-कार्य का जनक मानना अनुचित पक्षपात है । क्योंकि जैसे मुद्गर घट का अनुपकारी है उसी प्रकार पट-कटादि भी घट के अनुपकारी है फिर भी घट पट-कटावि की अपेक्षा न कर अपने नाशरूप कार्य के लिये मुद्गरादि को ही अपेक्षा करता है । इस आक्षेप को पुष्टि में व्याख्याकार ने शुभ-गुप्त का एक वचन उद्धत किया है जिसका अर्थ यह है कि-हेतु यदि अनुपकारी की अपेक्षा कर के अपने कार्य का उत्पादक होंगे तो स्पष्ट ही वे अपने स्थान पक्षपातिता के सूचक होंगे।'-अस्थकार की दृष्टि से यह आक्षेप व्यर्थ है ॥६॥