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प्रस्तावना
जगत् में अनेक धर्म हैं और सभी धर्म के प्रस्थापक अपने धार्मिक सिद्धान्तों की पुष्टि के लिये तर्क और प्रमाण की बातें करते हैं। सभी के सिद्धान्त भिन्न भिन्न होते हैं तथा उनके समर्थक, तर्क - दृष्टान्त आदि भी अलग अलग होते हैं। सब अपने अपने दृष्टिकोण से बात करते हैं। याद और प्रतिवाद एवं चर्चा का कमी अन्त नहीं आता । सत्य के जो जिज्ञासु एवं उपासक होते हैं वे भी मतिमंदता के कारण उन वाद-विवादों के बाद भी सम्यक निर्णय कभी कभी नहीं कर पाते । आचार्य श्री हरिभद्रसूरि महाराज तत्व का यथार्थ निर्णय करने में करुणा बुद्धि से सहाय करने के लिये शास्त्रवार्ता समुच्चय प्रन्य रचना में प्रवृत्त हुए ।
इस ग्रन्थराज में उन्होंने अपने काल तक विद्यमान प्रायः सभी वर्शनशास्त्रों के सिद्धान्तों, उनके पक्ष और प्रतिपक्ष को मनोहर ढंग से प्रस्तुत किया है। न इसमें उन्होंने कोई कदाग्रह रखा है, न किसी के प्रति दुर्भाव व्यक्त किया है, केवल शुद्ध बुद्धि से सत्य और तथ्य क्या है इस दिशा में अंगुलिनिर्देश कर रखा है। चौथे स्तबक में बौद्धमत के पक्ष और प्रतिपक्ष का निरूपण किया है । स्तबक ५ और छः में भी बौद्धमतवार्त्ता हो प्रवाहित है। महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजय महाराज ने अपनी व्याख्या स्याद्वादकल्पलता में मूल के प्रतनिहित आशय को अच्छे ढंग से उद्भासित किया है।
मंगलाचरण के बाद पांचवे स्तबक में विज्ञानाद्वैतवादी योगाचार बौद्धमत का प्रतिक्षेप करते हुए यह कहा गया है कि बाह्यार्थ के प्रभाव का साधक कोई प्रमाण नहीं है, क्योंकि बौद्धमत में प्रत्यक्ष तो अभाव का स्पर्श ही नहीं करता और अनुमान के लिये कोई सम्यक् लिंग नहीं है । अनुप से प्रभाव की उपलब्धि शक्य तभी होती है जब प्रतियोगि से मिल उसके उपलम्भक हेतुओं का सद्भाव रहे, उनके रहते हुए बाह्यार्थ का सर्वथा कालिक अभाव सिद्ध होना दुष्कर ही हैं, क्योंकि जो अर्थ उपलब्धिलक्षण प्राप्त होता है उसकी उनके उपलम्भक हेतुओं से उपलब्धि होती ही है ।
इस प्रसंग में व्याख्याकार ने उपलब्धियोग्यता का भिन्न भिन्न निर्वचन विस्तृत चर्चा के साथ प्रस्तुत किया है । [ दे० पृष्ठ ८ से २७ ] इसमें उदयताचार्य और चिन्तामणिकार के निर्वचनों का प्रतिवाद किया गया है। अंत में, बौद्ध की ओर से प्रस्थापित अभाषाकार ज्ञान में तत्तत्कुर्वद्रूपसमन्तरप्रत्यय को हेतुता का व्यख्याकार ने निराकरण कर दिया है।
तदनन्तर, प्रत्यक्षत्व को हेतु बना कर 'घटादि ज्ञानभिन्न नहीं है' ऐसा जो अनुमान बौद्ध ने प्रस्तुत किया है [ वे० पृष्ठ २८ से ४२ ], उसकी विस्तृत समीक्षा में उत्तर पक्ष में यह कहा गया है कि विज्ञान की स्वसंवेद्यता अर्थग्रहण के साथ संलग्न ही है, अतः बाह्यार्थ सिद्ध हो जाता है । [ दे० पृष्ठ ४३ से ५७ ]। इसमें बौद्ध की सहोपलम्भ नियम की युक्ति का निराकरण, कर्म-कर्तृ