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स्या० १० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
'तच्चतस्तदविभागाद् न दोप' इति चेत ? नील-पीताधाकाराणामपि कथं तस्यतो विभागः १ । 'प्रतिभासभेदादिति' चेन् ? प्रत्यक्षा-ऽनुमानयोरपि किं न विशदाऽविशदप्रतिभासभेदः । 'नीलाघाकारव्यतिरेकेण तत्र वैशबाद्याकाराननुभवाद् न तद्भेद' इति चेत् ? न, प्रदीर्याध्यवसाये तदनुभवस्याऽवाधितत्वात, क्षणिकाध्यवसाये तु प्रतिनियतकाकारानुभवस्यापि दुर्घटत्वात् ।
[ अपरोक्षत्व ग्राह्यत्वाभाव का प्रयोजक नहीं है ] विज्ञानयादी की ओर से जो यह बात कही गयी थी "चिपत्व अपरोक्ष का स्वरूप है और यह अपरोक्ष नीलादि में भी विद्यमान होने से ज्ञान के समान नोलावि भी ग्राह्य नहीं हो सकता"वड़ भी युक्त नहीं है । क्योंकि नीलादि को यदि, स्कुरणशील विज्ञानस्वरूप मानने से, अपरोक्ष माना जायगा तो अनुमेय वह्नि आदि भी स्फुरणशील अनुमानात्मक ज्ञान से अभिन्न होने के कारण अपरोक्ष हो जायगा । अतः प्रत्यक्ष और अनुमान में विषय की अपरोक्षता और परोक्षता के कारण जो विभाग होता है उसका ध्याघात हो जायगा । यदि यह कहा जाय कि-'प्रत्यक्ष और अनुमान में तस्वतः कोई भेद नहीं है ऐसा मान लेने पर यह दोष नहीं हो सकता"-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार प्रत्यक्षअनुमान में तास्विफविभाग अस्वीकार करने पर नीलाकार-पीताकार में भी तात्त्विक विभाग कैसे हो सकेगा? । यदि नोलप्रतिभास एवं पोतप्रतिभास के भेद से उन में भेद माना जापगा तो प्रत्यक्ष और अनुमान में भी प्रतिभास के भेव से भेद अपरिहार्य होगा। क्योंकि प्रत्यक्ष का प्रतिभास विशवप्रतिभास के रूप में होता है और अनुमान का प्रतिभास अविशद रूप में होता है।
यदि यह कहा जाय कि-'प्रतिभास में नोलादि प्रकार से अतिरिक्त वंशवाद्याकार का अनुभव नहीं होता अतः प्रत्यक्ष और अनुमान की, विशव प्रतिभास और अविशद प्रतिभासरूप में सिद्धि न होने से उन में भेद नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंफि-दीर्घकाल तफ अनुवर्तमान अध्यवसाय में वैशव का अनुभव निर्बाधरूप से सम्पन्न हो सकता है । जो अध्यवसाय क्षणिक है एक क्षण तक ही रहता है उस में तो नीलादि एकैक नियताकार का भी अनुभव नहीं हो सकता। कहने का आशय यह है कि जब किसो अर्थ का अध्यवसाय उत्पन्न होता है तो तत्काल उस में अर्थवेशद्य का ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि अथवेशद्य, अध्यवसाय उत्पन्न होने पर उसमें सम्पन्न होता है। प्रतः अर्थ में वैशद्य प्रथमतः न होने से अर्याध्यवसाय के उदय के साथ उसके वैशय फा ग्रहण नहीं हो सकता। किन्तु यदि वह अध्यवसाय दीर्घकाल तक उस विषय को ग्रहण करे तो उस विषय में उद्भत वैशद्य का भी उत्तरक्षणों में ग्रहण हो सकता है। यह घट और प्रदीप के दृष्टान्त से समझा जा सकता है। जैसे घट का प्रदीप से प्रकाश होते ही घर पर प्रथमत: अविद्यमान वस्त्रादि का प्रकाश नहीं होता फिन्तु कुछ समय तक घट और प्रदीप का सम्बन्ध रहने पर दूसरे क्षण में घट पर रखे नये वस्त्रादि का भी उसी प्रदीप से प्रकाश होने लगता है, उसीप्रकार प्रदीप-स्थानीय दीर्घकालस्थायी अध्यवसाय से भी अर्थ में अव्यवसाय के उदय के बारे में अर्थ में सम्पन्न होने वाले वैश झाकार का भी ग्रहण युक्तिसंगत है । किन्तु यदि अध्यवसाय क्षणिक होगा, तब तो वैशयाकार की बात तो दूर रही किन्तु उस से नीलायाकार का भी ग्रहण होना दुर्घट हो जायगा । यह इस प्रकार,-जैसे घट के साथ मेघविद्युत का सम्पर्क होने पर घर के सामान्यस्वरूप का तो ग्रहण हो जाता है किन्तु दूसरे ही क्षण जल आलोक का सम्पर्क तुट जाने पर उस के रूपादि विशेष का ग्रहण नहीं होता है उस