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[ शास्त्रवार्ता स्त० ५ श्लो० १२
प्रकार क्षणिक अध्यवसाय से उस के स्वरूप का ग्रहण तो हो सकता है किन्तु दूसरे ही क्षण में नीलादि श्रध्यवसाय टूट जाने से नीलाद्याकार विशेष का ग्रहण नहीं हो सकता ।
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एवं च 'यदवभासते तज्ज्ञानं यथा सुखादिकम् ' इत्यनुमानमपि निरस्तम्, सुखादीनां सर्वथा ज्ञानाऽभिन्नत्वाभावेन दृष्टान्ताऽसिद्धेश्व । न च 'सुखादयो ज्ञानात्मकाः, ज्ञानाभिन्नहेतुजवात्' इत्यतः सुखादीनां ज्ञानात्मकतासिद्धिः कुम्भादिभङ्गजस्य शब्दस्य कपालखण्डादिना तुल्यहेतुत्वेऽप्यतद्रूपत्वेन व्यभिचारात्, सुखादीनां विशिष्टादृष्टविपाक - सग्-अनितादिनिमित्तजन्यत्वेन सर्वथा ज्ञानाऽभिम्नहेतुत्वाभावाच अन्यथा विभिन्नस्वभावत्वानुपपत्तेः । नच तदसिद्धिरेव सुखादेराह्लादनाद्याकारत्वात् ज्ञानस्य च प्रमेयानुभव स्वभावत्वात् । तदुक्तम्“सुखमाहादाकारं विज्ञानं मेयोधनम्" इति । न च ज्ञानक्षणोपादानत्वादुत्तरज्ञानक्षचन दीनां इभिवम् आत्मद्रव्योपादानत्वात् तेषाम् । न तु पर्यायाणां पर्यायान्तरोत्यचानुपादानत्वं क्वचिद् दृष्टम्, द्रव्यस्यैवान्तर्वपादानत्वोपपत्तेः । तदुक्तम्"व्यक्ताव्यक्तात्मरूपं यत् पौर्वापर्येण वर्तते ।
कालत्रयेऽपि तद् द्रव्यमुपादानमिति स्मृतम् ||१||" इति |
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'यदि च सुखादयो ज्ञानात् सर्वथाऽप्यभिन्नाः तहिं तद्वदेवपामप्यर्थप्रकाशकत्वं स्यात्, न चात्र तदस्ति, सुखादीनामपि स्वज्ञानप्रकाश्यत्वेन बहिरर्थाविशिष्टत्वात्' इति देवसूरिप्रभृतयः । अन्ये तु 'सुखादीनामहङ्कार - क्रोधादिवदन्तमुखत्वेऽपि विभिन्नकर्मजत्वात् ज्ञानभिन्नत्वामित्य' भिमन्यन्ते ।
[ सुखादि का ज्ञानादि के साथ अत्यन्नामेट असिद्ध ]
इसी प्रकार 'जो अवभासित होता है वह ज्ञानात्मक होता है जैसे सुखादि।' इस अनुमान से भी अवभासमान अर्थ में ज्ञान की अभिनता का साधन नहीं हो सकता क्योंकि सुखादि में ज्ञान का अत्यन्त अमेव न होने से दृष्टान्त प्रसिद्ध है । इस दोष के वारणार्थ 'सुखादि ज्ञानात्मक है क्योंकि ज्ञानभिन्न हेतु से प्रजन्य है' - इस अनुमान से सुखादि में ज्ञानात्मकता को सिद्धि नहीं की जा सकती, क्योंकि 'जो यद्भिन्त हेतु से अजन्य होता है वह तदात्मक होता है' इस व्याप्ति से व्यभिचार है. क्योंकि कुम्भादि के ध्वंस से उत्पन्न होने वाला शब्द कुम्भव्वंस से भिन्न कपालखण्डादिरूप हेतु से अजन्य होते हुये भी कपालखण्डाद्यात्मक नहीं होता। दूसरी बात यह है कि सुखादि में ज्ञान भित्र हेतुजन्यत्व का अभाव स्वरूपासिद्ध भी है क्योंकि वह विशिष्ट अदृष्ट के परिपाक और माला- वनिता आदि ज्ञानभिन हेतुओं से भी उत्पन्न होता है । यदि सुखादि को ज्ञानभिन्न हेतु से जन्य न मान कर ज्ञानमात्र से ही जन्य माना जायगा तो ज्ञान और सुखावि में भिन्नस्वभावता की प्रनुपपत्ति हो जायगी । उनमें भिन्नस्वभावत्व असिद्ध है यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि सुखादि श्राह्लादनादिरूप होता है और ज्ञान अर्थानुभवरूप होता है। जैसा कि कहा गया है कि- 'सूख आह्लादनाकार और विज्ञान मेयबोधस्वरूप होता है ।'