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स्या०० टीका एवं हिन्वी विवेचन ]
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[ सुखादि का उपादान आत्मद्रव्य है ] यह भी नहीं कहा जा सकता कि सुखादि ज्ञानक्षणोपादानक होने से उसी प्रकार झानाभिन्न है जैसे उत्तरकालिक ज्ञानक्षण ज्ञानक्षणोपादानक होने से ज्ञान से अमिन्न होता है ।"- यह ठीक नहीं है क्योंकि सुखावि प्रात्मब्रव्योपादानक होता है अतः उसमें ज्ञानक्षणोपादानकत्व असिद्ध है। एक पर्याय को पार को हाति। 31EIR होता इस कहीं भी नहीं देखा गया। सर्वत्र आन्तर और बाहा सभी अर्थों का उपादान द्रव्य हो होता है जैसा कि एक कारिका में कहा गया है कि'प्रतीत और अनागत पर्यायों के रूप में अध्यक्त. एवं विद्यमान पर्याय के रूप में व्यक्त, जो दृश्य वर्तमान-मूत-भविष्य तीनों काल में पौर्वापर्यभाव से विद्यमान होता है, वही उपादान होता है ।'इसके अतिरिक्त सुखादि को ज्ञान से सर्वथा अभिन्न मानने में यह भी आपत्ति होगी कि सुखादि यदि ज्ञान से सर्वथा अभिन्न होगा तो उससे भी अर्थप्रकाश की प्रापत्ति होगी । वास्तविकता यह है कि सुखादि से अर्थ का प्रकाश नहीं होता । अतः सुखादि भी अपने ज्ञान से प्रकाश्य होने के कारण वाग्रार्थों से समान हो है। इस विषय को वेवसरि आदि विद्वानों ने यथास्थान स्पष्ट किया है कुछ अन्य विद्वानों का यह अभिमत है कि सुखादि यह अहंकार-क्रोध आदि के समान अन्तर्मुख होने पर भी यह ज्ञानभिन्न है, क्योंकि ज्ञानोत्पादक कम से भिन्न कर्म द्वारा उसकी उत्पत्ति होती है और कारणभेव होने पर कार्यमेव स्वाभाविक होता है।
यदपि घटादेानाकारत्वेऽपि 'भृतले न घटः' इत्यादेनियताधाराधेयभारकल्पनाबीजसाम्राज्याद् वारणामकारि, तदप्यसत्, आधारा-5ऽधेयाभ्यां कथंचिदपृथग्भूतस्याधाराधेयभावस्याबाधितानुभवसिद्धत्वेनाऽकाल्पनिकत्वात् , अन्यथा नीलादायप्यनाश्वासात् । यदपि अर्थाभावेऽपि धियामन्तहिर्विभागः स्वरूपभेदादेव' इति भणितम् , तदपि न तथ्यम्, व्यक्तिभेदस्यातिप्रसङ्गित्वान् , जातिभेदस्य चानभ्युपगमात् । न चान्तर्बहिर्षिभागो मिथ्या, सुख-नीलाद्यनुभवानामन्तबर्भािवस्यागोपालाङ्गनं प्रसिद्धत्वात । एतेनामिदमाकारभेद व्याख्यानमपि सुप्रत्याख्यातम्, अहमाकारस्य शरीरालम्बनत्वे 'इदं गौरम्' इत्यनुपपत्तेः, निरालम्बनत्वे च भ्रान्तन्यापत्तः, दानाधाकारकालेऽहमाकारानुपयत्तश्च । न चेदंताया अन्यस्या अनुपपत्तेज्ञानाकारमात्रत्वं युक्तम्, प्रत्यक्षसमानकालीनार्थपर्यायविशेषरूपन्यात् तस्याः । अनन्तधर्मात्मकवस्त्वभ्युपगमे दोपलेशस्याप्यमानादिति न किश्चिदेतत् ।
इत्थं विलक्षीभूतस्य तूष्णीभावमुपेषुषः । योगाचारस्य योगाय च्छलमद्य विजृम्भते ॥ १२ ॥
[ आधार-आधेय भाव कल्पनामूलक नहीं है ] विज्ञानवावी की ओर से घटादि को ज्ञानाफार मानने पर 'भूतले न घटज्ञान' इस प्रतीति के समान 'भूतले ने घटः' इस प्रतीति की आपत्ति का कारण जो वासना को नियत प्राधाराधेय भाव की कल्पना का बीज बताकर किया गया-यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि आधाराधेयभाव, यह आधार और प्राधेय से कश्चिअभिन्न होने के कारण, अबाधित अनुभव द्वारा सिद्ध होने से काल्प