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[ शास्त्रवा० स्त० ५ श्लो० १२
समं व्याप्त्यग्रहात् । नन्वेचं सुखादिकमपि साधारण स्यादिति चेत् ? स्यादेव नियक् सामान्येन । 'एवं नीलादिसाधारण्यं न दोपायति चेत् ? न, “इदं देवदत्तदर्शनविषयः, देवदत्तप्रवृत्तिविषयत्वात्' इत्यूर्जतासामान्येनापि साधारण्यसिद्धः, क्षणभङ्गस्य निरस्तस्यात् , निरसिष्यमाणत्वाच ।
[ वह्निविशिष्ट देश के अनुमान की दिग्नागोक्ति असार ] ____इस संदर्भ में दिङ्नाग का यह कहना है कि-'लिङ्ग में साध्य का अव्यभिचार यानी साध्य की व्याप्ति का ज्ञान धर्मों भिन्न यानी पक्षभिन्न में होता है तथा पक्षभिन्न में साध्य व्याप्यत्वरूप से निर्णीत लिङ्ग साध्य विशिष्ट धर्मो-पक्ष का अनुमापक होता है। इस प्रकार धूम से वह्नि नहीं किन्तु वाहविशिष्ट के नुमेय होता है। अतः परसन्तानरूप पक्ष से भिन्न स्वसन्तान में नीलग्रहणार्थ प्रवृत्ति में नीलदर्शनपूर्वकत्व के अव्यभिचारज्ञान से नीलग्रहणार्थ प्रवृत्ति द्वारा नोलदर्शनाविशिष्ट परसन्तान का अनुमान हो सकता है" तो यह कहना भी टोफ नहीं है क्योंकि साध्यविशिष्ट असाधारण देश के साथ भी लिङ्गविशिष्ट प्रसाधारण देश का व्याप्तिग्रह न होने से साध्यविशिष्ट देश का भी अनुमान नहीं हो सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि साध्यविशिष्ट देश के अनुमानार्थ इस प्रकार का व्याप्तिज्ञान आवश्यक है कि जो देश लिङ्गविशिष्ट होता है वह साध्यविशिष्ट होता है। यह व्याप्ति यदि धूमविशिष्ट पाकशाला और ह्निविशिष्ट पाकशाला के मध्य हो गहोत होगी तो धूमविशिष्ट पर्वत से वह्निविशिष्ट पवत का अनुमान नहीं हो सकेगा, अतः उसके लिये भी धम और वह्नि के साधारणता की और उसके द्वारा धुम वाले देश और वह्नि वाले देश को साधारणता अपेक्षित है।
इस पर यदि यह शंका की जाय कि-"इस प्रकार विभिन्नदर्शनों में भासमान नीलावि को साधारण मानने पर विभिन्न सन्तानों में भासमान सुखादि भी साधारण हो जायगा"-तो इसका उत्तर है कि विभिन्न सन्तानों में भासमान सुखादि में सुखत्वादि तिर्यक सामान्यरूप से साधारणता इष्ट हो है । इस पर विज्ञानवादी की ओर से यह कहना उचित नहीं है कि-'नीलत्वादि तिर्यक् सामान्यरूप से विभिन्न दर्शनों में भासमान नीलादि को भी साधारण मान लेने से उनके मत में भी कोई दोष नहीं होगा क्योंकि अमुक वस्तु देवदत्त की प्रवृत्ति का विषय होने से सिद्ध है कि वह देवदत्त के दर्शन का भो विषय है" इसप्रकार के अनुमान से देवदत्त के दर्शनकाल से प्रवत्तिकाल तक उस विषय के ऊर्यतासामान्य द्वारा भी साधारणता सिद्ध हो जायगी और यह साधारणता उसे मान्य नहीं हो सकती क्योंकि ऊवंता सामान्य उस वस्तु का नाम है जो वस्तु द्रध्यरूप में क्रमिकविभिन्न पर्यायों में अनुस्यूत हो अनुगत हो। यदि यह कहा जाय फि-यतः भावमात्र क्षणिक होता है अत: इसप्रकार का उतासामान्य सम्भव न होने से उस रूप से देवदत्त की प्रवृत्ति और वर्शन के विषयों में साधारणता नहीं हो सकती"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि 'भावमात्र क्षणभडगुर है' इस मत का निराकरण किया जा चुका है और आगे भी उसका खंडन किये जाने वाला है।
यदपि 'चिद्रूपत्वस्याऽपरोक्षरूपस्य नीलादिसाधारण्याज्ज्ञानवद् न प्राह्यत्वम्' इति । तदप्यवधम् , स्फुरदूपत्वेनाऽपरोक्षत्वे बयादेपि तथास्त्रे प्रत्यक्षा-ऽनुमानविभागव्याघातात् ।