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स्याक० टीका एवं हिन्दी विषेचन ]
[ अभाव भाव बन जाता है-इस में असम्मति ] 'उत्पत्ति के हेतु अभाव को भाव बना देते हैं। यह मान्य नहीं है क्योंकि 'असत् उत्पन्न होता है इसका अर्थ यथाश्रुत न होकर इतना ही होता है कि 'उत्पन्न होने वाली वस्तु उत्पत्ति के पहले नहीं होती है।' जब उत्पत्ति के पहले अस्तित्व शून्य होती है तब उस के सम्बन्ध में ये विकल्प, जो भावमात्र में हो सम्भब होते हैं, वे उसी प्रकार नहीं हो सकते जैसे तीक्ष्णता-मृदुता आदि के विकल्प शशविषाण में नहीं हो सकते । यदि यह कहा जाय कि-'नाश और उत्पत्ति दोनों ही भाष के धर्म हैं। वोनों को भावधर्मता में कुछ अन्सर नहीं है। प्रतः यह शंका स्वाभाविक है कि-जके नाशरूप भावधर्म नि
नितक होता है. उसी प्रकार उत्पत्तिरूप भावधर्म भी नितक होना चाहिये'-तो यह भी ठीक नहीं है गोंकि उत्पत्ति और विनाशधर्मो उत्तरभाव से भिन्न पूर्वमाव का नाश प्रसिद्ध है और उत्तरभाव अपने हेतु से ही उत्पत्तिविनाराधों उत्पन्न होता है। अत: उत्पत्तिस्वरूप भावधर्म निनिमिन नहीं होता। किन्तु बुद्धि की मन्दता से मनुष्य उत्तरक्षण में पूर्वक्षण के नाश का स्वभाव. पूर्वक्षण-नाशात्मकता का निश्चय नहीं कर पाता क्योंकि पूर्वक्षणनाशात्मना ही उत्तरक्षणभाव के दर्शन को पटुता नहीं होती। किन्तु जब घट क्षण से विलक्षण कपालक्षण को उत्पत्ति होती है उसी समय उत्तरक्षण में पूर्वक्षण को ऐक्य की भ्रान्ति के सादृश्यज्ञानरूप कारण को निवृत्ति होने पर घटनाश का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष हो कर घटनाश के निश्चय की उत्पत्ति होती है । यह ठीक उसी प्रकार होता है जैसे सदृश विषाक्त और निविष खीररूप दो विषयों का दर्शन होने पर विकार के अजनक निविषखीर के साधायज्ञान से विकारोत्पत्ति के पूर्व विषाक्त खीर में विकार जनन शक्ति का निश्चय न होने पर भी विकारवर्शन के अनन्तर विकारजननशक्ति का निश्चय होता है। इस प्रकार बौद्धों का अभिमत यह है कि उत्तरभाव हो पूर्वभाव का विनाश है और वह अपने हेतु से उत्पत्तिविनाशधर्मों रूप में उत्पन्न होता है। उत्तरभाव से अतिरिक्त पूर्वभाव का कोई विनाश सिद्ध नहीं है जिसके लिये हेतु को अपेक्षा हो। इस प्रकार विनाश की निर्हेतुकता का अर्थ है-उत्तरभाव उत्पादकहेतु भिन्न हेतुराहित्य । किन्तु बौद्ध का यह कथन ग्रन्थकार को दृष्टि में युक्तिशून्य है ।। २ ॥
तीसरी कारिका में उक्त कथन की युक्तिशून्यता का उपपादन किया गया हैकुतः ? इत्याहमूलम्--हेतु प्रतीत्य यदसौ तथानश्वर इष्यते ।
यथैव 'मवतो हेतुर्विशिष्टफलसाधकः ॥३॥ हेतु-मुद्गरादिकम् प्रतीत्य, यदसौ-भाषः, तथानश्वर: प्रायोगिकादिनाशापेक्षया नश्वरस्वभावः इभ्यते । निदर्शनमाह-यथैव भवता सुगतसुतस्य हेतुः घटादिः विशिष्टफलसाधका-मुद्रादिकं प्रतीत्य विजातीयकपालादिक्षणजननस्वभाष इष्टः । एतेन
"स्वभावोऽपि स तस्यैत्थं येनापेक्ष्य निवयते ।
विरोधिनं यथान्येषां प्रवाहो मुद्रादिकम् ॥" इति समाधानं न युक्तम्, यतो नास्माभिरिशरारुक्षणव्यतिरिक्तोऽपरः प्रवाहोऽभ्युप