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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ६ श्लो.४
गम्यते यः खनिवृत्तारकिश्चिकर मुद्रादिकमपेक्षते, किन्तु परस्परव्यतिरिक्ताः पूर्वापरक्षणा एव, ते च सरसत एव विरुध्यन्न इति न कचिदकिश्चित्करापेक्षनिवृत्तिः' इत्युक्तावपि न क्षतिः, विलक्षणहेतु प्रतीत्य नश्वरस्वभावस्य तसा दंगल्य विमानन भावनायुपगमसनसमाधानत्वात् ।। ३॥
[ उत्पत्तिवत् नाश में सहेतुकता की उपपत्ति ] घटादिस्वरूप भाव को मुद्गरादि का संनिधान होने पर उसका प्रायोगिक नाश होता है, नाश दो प्रकार के हैं -प्रायोगिकनाश व विनसानाश, विखसानाश है-विशिष्टकारण प्रयोग के विना होने वाला माश । मुद्गरप्रहारादि विशिष्ट कारणप्रयोग से जनित नाश यह प्रायोगिक नाश है। और उसकी अपेक्षा वह नश्वर स्वभाव कहा जाता है । यह ठीक उसी प्रकार युक्तियुक्त होता है जैसे बौद्ध मत में घट को मुद्गरादि का सन्निधान प्राप्त होने पर विजातीय कपालक्षण की उत्पत्ति होती है और उस उत्पत्ति की अपेक्षा घट विजातीय कपालक्षणजनन स्वभाव होता है । इस संदर्भ में, बौद्धों ने नाश को निर्हेतुकता पक्ष के इस समाधान को कि-'जैसे घटक्षण का प्रवाह विरोधी मुद्गरादि के प्राप्त होने पर निवृत्त होता है उसी प्रकार घटादि भाव का यह स्वभाव होता है जिस स्वभाव के कारण वह विरोधी मुद्गरादि को प्राप्त कर निवृत्त होता है ।' युक्तिहीन बताया है और कहा है कि औद्धमत में प्रतिक्षण नश्वर क्षणों से भिन्न कोई प्रवाह मान्य नहीं है। जिसे अपनी निवृत्ति में अकिञ्चित्कर मुगरादि को अपेक्षा हो। किन्तु परस्पर भिन्न पूर्वोत्तर भानी क्षण ही प्रवाह है। वे स्वभावतः परस्पर विरुद्ध है। अतः किसी भी क्षण की निवृत्ति को अफिश्चित्कर मुद्गरादि की अपेक्षा नहीं होती। अतः नाश का निहतुकत्वपक्ष अक्षुण्ण है।" किन्तु बौद्ध के इस कथन से भी नाश के सहेतुकत्वपक्ष में क्षति नहीं हो सकती क्योंकि घटक्षण जैसे मुद्गरादि को प्राप्त कर कपालादिरूप विलक्षण क्षण के जनन स्थभाव से सम्पन्न होता है उसी प्रकार से घटक्षण का नश्वर स्वभाव भो मुद्गराविरूप विलक्षण हेतु की प्राप्ति से सम्पन्न होता है। इस प्रकार दोनों पक्ष में समाधान तुल्य है ॥३॥
चौथी कारिका में तृतीय कारिका में उक्त तथ्य की पुष्टि की गई है . एतदेव भावयन्नाहमूलम्-तथास्वभाव एवासी स्वहेतोरेव जायते ।
सहकारिणमासाद्य यस्तथाविधकार्यकृत् ॥४॥ तथास्वभाव एवासौं घटादिः स्वहेतोरेस सकाशाजायते यः सहकारिणं मुद्रादिक्रम् आसाद्य तथाविधकार्यकृत-विजातीयकपालादिकार्यकारी। तदपेक्षस्यैव हि घटक्षणस्य समानक्षणान्तरोत्पादनासमर्थाऽसमर्थतरा-ऽसमर्थतमादिक्षणान्तरोल्पादनप्रक्रमेण घटतलिनिवृत्ती कपालादिक्षणोत्पत्तेरभ्युपगमात ।। ४ ॥
घटावि अपने कारण से ही ऐसे स्वभाव से युक्त हो कर हो उत्पन्न होता है जिससे वह सहकारी मुद्गरादि को प्राप्त कर कपालाविरूप विजातीय कार्य का जनक होता है। क्योंकि घटक्षण