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स्या० का टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
क्रमशः समान क्षणान्तर को उत्पन्न करने में असमर्थ असमर्थतर एवं प्रसमर्थतम क्षणान्तर को उत्पन्न करते हुये मुद्गरादि सापेक्ष होकर ही घटसन्तान को निवृत्ति होने पर कपालादिक्षण का उत्पादक होता है ॥४॥
५ वीं कारिका में उपर्युक्त का ही समर्थन किया गया है - उपचयमाहमुलम्---न पुनः क्रियते किञ्चित्तेनास्य सहकारिणा ।
समानकालभावित्वात्तथाचोरुमिदं तव ॥५॥ न पुनस्तेन मुद्रादिना सहकारिणा तस्य-घटस्य क्रियते किञ्चित् अतिशयाधानम् । कुतः ? इत्याह-द्वयोः सहकार्य-सहकारिणोः समानकालभावित्वात एककालोत्पत्तिकत्वात् , अतिशयस्य च सहकार्यगतस्य तत्स्वरूपात, कार्यकारणभावस्य च पौर्शपयनियतत्वात् । संवादमाह-तथाचोक्तमिदं वक्ष्यमाणं तव स्वशास्त्र ।। ५ ।।
मुद्गरादिरूप सहकारी से घट में किसी अतिशय का प्राधान नहीं किया जाता। क्योंकि सहकार्य घट और सहकारी मुद्गर दोनों एककाल में उत्पन्न होते हैं। सहकार्य घट में होने वाला अतिशय भी सहकार्यस्वरूप होने से सहकारी का समानकालिक है । अत एव वह उसका कार्य नहीं हो सकता क्योंकि कार्यकारण भाव पौर्वापर्य का ध्याष्य है। प्रतः जिसमें पौर्वापर्यरूप व्यापक नहीं है उसमें कार्यकारणभावरूप व्याप्य नहीं हो सकता। यह बात बौद्ध के अपने शास्त्र में भी कही गयी है ॥५॥
ट्ठी कारिका में समानकालिक पदार्थों में कार्यकारण भाव नहीं होता इस विषय में बौद्धशास्त्र का संवाद प्रस्तुत किया गया हैमूलम्'--'उपकारी विरोधी च, सहकारो च यो मतः।
प्रवन्धापेक्षया सर्वो नैककाले कथंचन ॥ ६ ॥ ____ उपकारी क्षीरादिर्यालादेः, विरोधी-नकुलादिः सादेः, सहकारी-मुद्रादिः कपालादेः यो मतः इष्टः, स प्रयन्धापेक्षया सन्तानापेक्ष या सर्वःनिरवशेषः, नेककाले कथंचन, बालादिसताया एवं बालाघुपकारत्वात् । स्वसभागक्षणोत्पत्तिर्हि उपकारः, स्वविसभागक्षणोत्पत्तिश्च विरोधः, स्वोत्पत्तिरेव च सहकार इति ॥ ६॥
[ एककालीन पदार्थों में कार्यकारणता का असंभव ] जैसे बालक आदि का उपकारी दुग्धादि खाद्यपदार्थ है तथा सर्पादि का विरोधी जसे नकुलादि है और कपालादि का सहकारी जैसे मुद्गरादि है, इस प्रकार जो कोई किसी का उपकारी विरोधी अथवा सहकारी माना जाता है यह सब सन्तान की अपेक्षा माना जाता है । एक काल में उत्पन्न होने वाले व्यक्ति की अपेक्षा कथमपि नहीं माना जाता। क्योंकि बालक आवि की सत्ता ही बालकादि का उपकार है और बालक आदि की सत्ता बालकाविक्षणों का सन्तानरूप है क्योंकि