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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ६ श्लो० २ न च उत्यादेऽप्ययं पर्यनुयोगः-स्वभावतो द्युत्पत्तिस्वभाव उत्पत्तिहेतुव्यापारवयात् । अनु पत्तिस्वभावस्य च वक्तुमशक्यत्वादिति वाच्यम्; उत्पत्तिस्वभाव इत्यस्याऽभूत्वा-भवनलक्षणोत्पत्तिरेव स्वभावो यस्थेत्यर्थेऽभूतस्य भवनाऽयोगेनोक्तदोषानिवृत्तावपि, उत्पत्तौ सत्तायां स्वभावः आभिमुख्यलक्षणो यस्य नियतहेत्वनन्तरभाविन इत्यर्थे दोषाऽभावात, तथैव तव्यपदेशोपपत्तेः, द्वितीयविकल्पस्य चानभ्युपगमादेव, अनुत्पत्तिस्वभावस्य सर्वसामर्थ्याभावलक्षणस्यानुत्पाधत्मादेव ।
नाशका उत्पत्तिहेतु अयोग प्रसंग का प्रतीकार ] यदि यह कहा जाय कि नाश के सम्बन्ध में उक्त प्रकार के प्रश्न के दृष्टान्त से भाव को उत्पत्ति पक्ष में भी यह प्रश्न उठ सकत
में भी यह प्रश्न उठ सकता है कि माव स्वभावत: उत्पत्तिस्वभाव होता है अथवा अनुत्पत्तिस्वभाव होता है ? उसमें भी भावोत्पत्ति सर्वसम्मत होने से दूसरे स्वमाव को स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रथम स्वभाव मानने पर स्वभावतः उत्पत्तिस्वभाव वाले पदार्थ के प्रति उत्पादक हेतु के व्यापार को निरर्थकता अनिवार्य है।"-तो यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकिउत्पत्तिस्वभाव का अर्थ यदि यह किया जाय कि उत्पत्ति का अर्थ है-अभवनपूर्वक भवन वही जिसका स्वभाव हो वह है उत्पत्तिस्वभाव । तो उत्पादकहेतु के व्यापार की निरर्थकता रूप दोष की निवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि उत्पादक हेतुओं से प्रभवनस्वभाव वाले पदार्थ के भवन का सम्पादन नहीं हो सकता । किन्तु, यदि उत्पत्तिस्वभाव का यह अर्थ किया जाय कि उत्पत्ति का अर्थ है सत्ता और स्वभाव का अर्थ है आभिमुख्य । इस प्रकार नियत हेतु के प्रयोग के अनन्तर जिसका सत्ता के प्रति प्राभिमुख्य हो वह है उत्पत्तिस्वभाव, तो उक्त दोष नहीं हो सकता क्योंकि निघत हेतु के अनन्तर हो जो सत्ताप्राप्ति के उन्मुख होता है, उसी उत्पत्तिस्वभावता का व्यवहार होता है।
दूसरा विकल्प अस्वीकार्य होने के कारण ही विचारणीय नहीं है। क्योंकि जो अनुत्पत्तिस्व. भाव है उसमें सर्वविषसामर्थ्य का अभाव है इसलिये वह तो उत्पन्न होने में भी असमर्थ है । अत एव द्वितीयविकल्प को लेकर उत्पादक हेतु के व्यापार की निरर्थकता का आपावन नहीं हो सकता।
न ह्य त्पत्तिहेतवोऽभावं भावीकुर्वन्तीत्यभ्युपगम्यते, 'असदुत्पद्यते इत्यस्य उत्पद्यमान प्राग नास्ति' इत्येवार्थात । प्राग्नास्तितायां च न भावाश्रयाणां विकल्पानां शशविषाण इव तीक्षणतादिगोचराण संभवः न च 'भावधर्मस्वाविशेषाद् नाशवदुत्पत्तेरपि किं न निहेतुकत्वम् ?' इति शङ्कनीयम्, उदयापर्गिणो भावाद् व्यतिरिक्तस्य नाशस्याभावात् , तस्य च स्वहेतोरेव तथाभूतस्योत्पन्नत्वेन (उत्पत्तिस्वरूप) तद्धर्मस्याऽनिमित्तत्वाभावात; केवलं तमस्य स्वभावं न विवेचयति मन्दधीः, दर्शनपाटवाभावात् , विसदृशकपालादिक्षणोत्पत्तावेव श्रान्तिकारणविंगमेन प्रत्यक्षनिबन्धनतन्निश्चयोत्पादात्, विषयरूपदर्शनेऽप्यतत्कारिपदार्थसाधयेविप्रलब्धस्य प्राकारणशक्त्यविवेचनेऽपि विकारदर्शनानन्तरं तन्निश्चयवदिति । अत्रोत्तरम-तद् न मुक्तिमत्-एतदुक्तं न युक्तम् ॥ २ ॥