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स्वा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन |
त्वेनानुपलब्धेः । आदिना जन्यस्योभयस्वभावत्वे वस्तुन ए स्थिरा - स्थिरोभयस्वभावत्वे किमीeप्रयासेन १ इत्यादि द्रष्टव्यम् ।
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परेषां पुनरिह प्रकारान्तरेणा निष्टापादानविधिमाह-स्वनिवृत्यादिभावादी- जनकस्य निवृत्त्यादिस्वभावत्वे कार्याभावादितः कार्यानुत्पत्र्यादिदोषप्रसङ्गात्, अपरे - आचार्याः जनकस्याहेतुत्वमाहुः | इदम्म्रुक्तं भवति स जनकः स्वनिवृत्तिस्वभावः स्यात्, कार्यजननस्वभावो वा, उभयस्वभावो वा अनुभयस्वभावो वा । आद्ये, स्वयं निवर्तेतैव, न कार्यं जनयेत् । द्वितीये, कार्यमेव जनयेद् न निवर्तेत । तृतीय - चतुर्थयेोस्तु विरोधाऽसंभव । अथ स्वनिवृत्तिरेव कार्यजनन मिति न विरोध इति चेत् ? तहिं जननं कार्याऽन्यतिरिक्तमिति कार्यमेव, तथ स्वनिवृत्तिः, सा च स्वात्मिकेत्यनिवारितोऽन्वयः, कार्याभावो वा । क्रमिक निवृत्तिकार्यजननस्त्रभावकं च नैकं क्षणिकमित्यादि स्त्रधियाऽभ्यूहनीयम् ॥ २१ ॥
[ उभयानुपस्वभाव जन्य की जनकता में विशेषादि दोप ]
भावहेतुतया श्रभिमतपदार्थ को सत्-असत् उभयस्वभाव जन्य का एवं न सत्-न श्रसत् अनुभयस्वभावजन्य का भी जनक नहीं माना जा सकता। क्योंकि सरस्वभावत्व और असत्स्वभावत्व में विरोध होने से एक जन्य वस्तु सत्-असत् उभयस्वभाव नहीं हो सकती । यद्यपि यह विरोध दोष जनमतानुसार नहीं है, क्योंकि जैन के मत में वस्तु विरुद्धाविरुद्ध अनंत धर्मों से आश्लिष्ट होती है किन्तु बौद्धमत से विशेष है। क्योंकि बौद्धमत में किसी भी एक वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मो का सहचार होना श्रमान्य है । अनुभयस्वभाव जन्य के प्रति भावहेतुतया अभिमत पदार्थ को जनकता को मानना यह तो युक्तिसंगत हो ही नहीं सकता, क्योंकि ऐसा जन्य जो सत् भी न हो और असत् भो न हो, वह निःस्वभाव होने से प्रसिद्ध है । अत एव यह विकल्प असम्भव दोषग्रस्त है ।
ग्रन्थकार ने विरोध और असम्भव दोष का उल्लेख कर श्रादि शब्द से दोषान्तर का भो उल्लेख किया है जो तृतीय विषल्प में घटित होता है-जन्य को सत् श्रसत् उभयस्वभाव मानने पर वस्तु की स्थिर और अस्थिर उभयस्वभावता स्वीकृत हो जाती है। अतः वस्तु को क्षणिक सिद्ध करने के लिये नाश के निर्हेतुकत्व साधन का प्रयास व्यर्थ हो जाता है ।
[ अन्य प्रकार से अनिष्टापादक अन्य आचार्य का मत । ]
ग्रन्थकार ने कारिका के उत्तरार्ध में अन्य विद्वानों के मत से अन्य प्रकार से भी श्रनिष्ट आपत्ति का उपदर्शन किया है जैसे, भावजनकत्वरूप से अभिमत पदार्थ के सम्बन्ध में चार farer हो सकते हैं कि (१) जनक रूप से अभिमत पदार्थ स्वनिवृत्तिस्वभाव होता है या (२) कार्यजनन स्वभाव होता है अथवा (३) स्वनिवृत्ति और कार्यजनन उभयस्वभाव होता है अथवा ( ४ ) न तो स्वनिवृत्तिस्वभाव और न कार्यजननस्वभाव इस प्रकार अनुभवस्वभाव होता है । इन चार स्वभाव को स्वीकारने पर क्रमशः कार्याभाव, निवृत्त्यभाव, विरोध और असम्भव दोष प्रसक्त होते हैं। अतः इन विकल्पों के सदोष होने से तथा पाँचवा कोई विकल्प सम्भव होने से भावहेतुसमा अभिमत पदार्थ में भाव के अनुत्पादकत्व की प्रापत्ति प्रसक्त होती है। आशय यह है कि ( १ ) यदि