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| शास्त्रवास० स० ६ इलो० २२
जनक को स्वनिवृत्तिस्वभाव मानेंगे अर्थात् जनक का यह स्वभाव मानेंगे कि वह स्वयं निवृत्त होता है तो इस पक्ष में वह निवृत्त ही होगा-कार्य को जनक नहीं होगा क्योंकि कार्य जनन के लिये जनक को वर्त - मान होना चाहिये किन्तुनिवृत्ति स्वभाव मानने पर वह निवर्तमान ही होगा - वर्तमान नहीं होगा । (२) जनक कार्यजन स्वभाव होता है इस द्वितीय विकल्प में वह जनक कार्य का उत्पादक ही होगा, निवृत्त नहीं होगा कि की उत्पत्ति के लिये उसका वर्तमान होना आवश्यक होगा और वर्तमान रहते हुये निवृत्त होना असम्भव है। (३) तीसरे विकल्प में विरोध होगा क्योंकि- 'निवृत्ति स्वभाव' और 'वर्तमान का अनामावि कार्यजननस्वभाव' इन दोनों के सह अस्तित्व में विरोध है । ( ४ ) ate free में असम्भव स्पष्ट है क्योंकि- 'उक्त दोनों स्वभावों से रहित भाव का अस्तित्व हो हो नहीं सकता। यदि तृतीय विकल्प में प्रदर्शित विरोध के परिहारार्थ यह कहा जाय कि - "स्व की निवृत्ति हो कार्य का जनन है । अतः स्वनिवृत्ति और कार्यजनन यह दो स्वभाव न होकर एक ही स्वभाव है अतः विरोध नहीं है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि- 'कार्य का जनन कार्य से भिन्न न होने के कारण कार्यस्वरूप हो है और कार्य 'जनक की निवृत्ति रूप है और जनक की निवृत्ति जनक से अपृथक् सिद्ध होने के कारण जब कार्यात्मक है तो जनक मी कार्यात्मक होगा । अतः जन्य में जनक के अन्वय का निवारण न होने से निरन्वय नाश को सिद्धि न होगी । अथवा यदि स्वनिवृत्ति को ही कार्यजनन स्वभाव मानने पर स्वनिवृत्ति से अतिरिक्त कार्य का प्रभाव होगा इस दोष के परिहार के लिये निवृत्तिस्वभाव और कार्यजननस्वभाव का क्रमिक अस्तित्व यदि माना जायगा तो वह क्षणिकत्व पक्ष में सम्भव नहीं हो सकता। ऐसे अनेक दोषों का ग्रनुसन्धान किया जा सकता है ।। २१ ।।
२२ वीं कारिका में इस शंका कि 'भावहेतु में भाव के अजनकत्व का आपादन करने से हेतुहेतुमद्भाव का निषेध फलित होता है और वह हेतु हेतुद्भाव के प्रत्यक्ष से बाधित है अतः उक्त प्रापादन प्रत्यक्ष विरुद्ध होने से प्रसङ्गत है' निराकरण किया गया है---
नन्वेवं हेतुफलभावनिषेधः कृतः स्यात् स च प्रत्यक्षवाधित इत्याशङ्कापोहायाह
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मूलम्न वाध्यक्षविरुद्धत्वं जनकत्वरूप मानतः । असर नीत्या तदूव्यवहारनिषेधतः ॥ २२ ॥
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न चाध्यक्ष विरुद्रत्वमत्र बाधकमुद्भावनीयम्, जनकस्दस्य मानतः - प्रमाणात् असिद्धेः, अत्र नीत्यान्यायेन तद्व्यवहार निषेधतः जनकत्व व्यवहारनियेधात् प्रमाणाभावस्य सद्व्यवहाराविषयत्वानुमापकत्वात्, अपेक्षया चोक्तरीत्यात्रार्थे प्रमाणाभावाच्याधानादिति मात्रः ॥ २२॥ [ प्रत्यक्षविरोध का उद्भावन व्यर्थ है ]
भावहेतु में भावजनकत्व के अभाव को आपादन में प्रत्यक्ष विरोध का उद्भावन नहीं हो सकता। क्योंकि - ' जनकता यह प्रमाण से सिद्ध नहीं है अर्थात् जनकता में प्रमाण का प्रभाव है । इसलिये जनकत्वप्रत्यक्ष अप्रामाणिक होने से उससे जनकत्वाभाव के श्रपादन में विरोध नहीं हो सकता। इस पर यह प्रश्न होगा कि जनकला यदि प्रमाण सिद्ध नहीं है तो उसके प्रभाव का भी आपादन कैसे हो सकता है ? क्योंकि अप्रामाणिक का अभाव भी प्रामाणिक नहीं होता । तो इसका उत्तर यह है कि भावहेतु में जनकत्व का निषेध नहीं करना है किन्तु अनुमान द्वारा जनकत्व के यथार्थ
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