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स्था. फ. टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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ध्यवहार का निषेध करना है। क्योंकि-'प्रमाणाभाव यथार्थव्यवहारविषयवाभाव का अनुमापक होता है। यह नियम है कि जिस में प्रमाण नहीं होता वह यथार्थव्यवहार का विषय नहीं होता। यदि यह कहा जाय कि 'जनकत्व में प्रमाणाभाव असिद्ध है- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि-'कार्य को अपेक्षा उक्त रोति से अर्थात् सत्स्वभावकार्यजननस्वभावत्व असत्स्वभावकार्यजननस्वभावस्व आदि विकल्प दोषग्रस्त होने से जनकता को उपपत्ति सम्भव न होने के कारण अनकता में प्रमाणाभाव की सिद्धि अध्याहत है ॥ २२॥
२३ बों कारिका में यह बात बतायी गार है कि प्रमाणात साहारामार का साधक न्याय बौद्ध को भी स्वीकृत है
अयं च परेणाप्याश्रित एव न्याय इत्याहमूलम्-मानाभावे परेणापि व्यवहारो निषिध्यते ।
सज्ज्ञानशब्दविषयस्तबदनापि दृश्यताम् ॥ २३ ॥ परेणापि बौदेनापि मानाभावे-प्रमाणाभावे कचिद् वस्तुनि प्रधानेश्वगदी सज्ज्ञानशब्दत्रिपयो व्यवहारो निषिध्यते-प्रधानादिक 'सत्' इति न ज्ञेयम् 'सद्' इति नाभिधेयं घा, प्रमाणेनानुपलभ्यमानत्वादिति । तददत्रापि-जनकत्वेऽपि-दृश्यतां प्रमाणाभावेन सयवहारनिषेधः, न्यायस्य समानत्वात् । निरस्तो 'नाशहेतोरयोगतः' इत्याद्यो हेतुः ॥ २३ ॥
[प्रमाणाभाव से व्यवहारनिषेध बौद्ध को मान्य ] बौद्ध भी जिस में प्रमाण का अभाव होता है उसमें यथार्थव्यवहार का निषेध करते हैं । वह निषिव्यमान व्यवहार ज्ञान विषयक भी होता है और शवविषयक भी होता है। जैसे प्रधान-त्रिगुवात्मिका प्रकृति और ईश्वर-नित्यसर्वज्ञ आदि में बौद्धष्टि से कोई प्रमाण न होने से बौद्धमत में इस प्रकार का निषेध किया जाता है कि प्रधान आदि सद रूप में जेय और सत शव से अभिधेय नहीं है क्योंकि-'खे प्रमाण से सिद्ध नहीं होते' । इस स्थिति में ग्रन्थकार का कहना है कि बौद्ध को इस तथ्य पर भी दृष्टि देनी चाहिये कि जिस न्याय से प्रधान प्रादि में प्रमाणाभाव से सदचवहार का निषेध होता है यह न्याय जनकत्य के सम्बन्ध में भी समान है। अब तक प्रस्तुत विचार से नाश का हेतु युक्तिसिद्ध नहीं है, यह बताया गया। इससे क्षणिकत्व के साधक इस प्रथम हेतु का निराकरण किया गया ।। २३ ॥ [ नाशहेतु अयोग की चर्चा समाप्त ]
२४ वी कारिका में क्षणिकत्व के साधक अर्थक्रियासमर्थत्वरूप द्वितीय हेतु में दोष बताया आ रहा है--
अथ 'अर्थक्रियासमर्थत्वात्' इति द्वितीयं हेतुं दुषयितुमाहमूलम् - अर्थक्रियासमर्थत्वं क्षणिके यच्च गोयते !
उत्पत्यनन्तरं नाशाखि ज्ञेयं तदयुक्तिमत् ॥ २४ ॥