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[ शास्त्रवात स्त० ५ श्लो १०
उनके शास्त्र और सम्प्रदाय से उन में ऐसी वासना चिरकाल से प्रतिष्ठित हो गयी है कि बाह्यज्ञान से भिन्न कोई वस्तु ही नहीं होती । किन्तु दूसरे के प्रति अपना अभिमत बाह्यार्थभाव को सिद्ध करने के लिये किसी प्रमाण का प्रयोग नहीं कर सकते, क्योंकि उन्हें बाह्यार्थ का सार्वबेशक और सार्वकालिक अभाव अभिमत है और वह प्रतिपक्ष में प्रसिद्ध नहीं है । अतः उसकी व्याप्ति का ग्रह किसी हेतुविशेष में न हो सकने से उसके साधनार्थ अनुमान का प्रयोग नहीं हो सकता । यदि प्रमाण का प्रश्न करने पर बौद्धवादी मौनावलम्बन करेगा तो प्रतिवादी के साथ विचारकाल में बौद्ध का निग्रह यानी पराजय होगा । यदि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि प्रतिवादी के साथ इस विषय में विचार प्रवृत्त होने पर बाह्यार्थ अभाव सिद्ध करने के लिये इस प्रकार के अनुमान का प्रयोग किया जा सकता है कि 'घटपटादिवस्तु ज्ञान से भिन्न नहीं है क्योंकि ज्ञानभिन्नत्वरूप से उनका उपलम्भ नहीं होता।' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अनुपलब्धि से अभाव का ग्रह तभी होता है अब प्रतियोगी को सत्ता से उसके उपलम्भ का आपादन हो सके । ज्ञानभिन्नत्व चक्षु आदि से अग्राह्य ज्ञान से घटित है अतः घटादि के ज्ञानभिन्न होने पर भी ज्ञानभिन्नत्वरूप से उनके उपलम्भ का उपपादन नहीं हो सकता । अतः ज्ञानभिन्नत्वेन घटादि का अनुपलम्भ ज्ञानभिन्न घटादि के प्रभावसाघन में अप्रयोजक है । इसी तथ्य को व्याख्याकार ने पिशाचव के उपलम्भ के समान ज्ञानमित्यविशिष्टघट के उपलम्भ के आपादन को अशक्य बताते हुये ज्ञानभिन्नघटादि के अभाव - fare प्रत्यक्ष के उत्पादन की अशक्यता बताकर प्रकट किया है ॥६॥
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बौद्ध का पूर्वपक्ष
विज्ञानवादी बौद्ध का कहना है कि 'घटादि पदार्थ ज्ञान से भिन्न नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष है । जैसे ज्ञानस्वरूप प्रत्यक्ष होने से ज्ञानभित्र नहीं है।' बौद्ध के इस अभिप्राय को १०वीं कारिका में प्रस्तुत किया गया है
'घटादिर्न ज्ञानभिन्नः, प्रत्यक्षत्वात्, तत्स्वरूपवत्' इत्याशवेनाह—
मूलम् — विज्ञानं प्रत्स्वसंवेद्यं न त्वर्धा युक्त्ययोगतः । अतस्तद्वेदने तस्य ग्रहणं नोपपद्यते ॥१०॥
चिज्ञानं यत् = यस्मात्कारणात् स्वसंवेयं = सत एवं रफुरद्रूपम् तथानुभूतेः, न स्वर्थः परपरिकल्पितः स्वसंवेद्यः । कुतः १ इत्याह- युक्त्ययोगतः = युक्त्यभावात् सर्वस्य सर्वज्ञताद्यापत्तेः । अतस्तद्वेदने = विज्ञानानुभव, तस्य परपरिकल्पितस्यार्थस्य ग्रहणं - ज्ञानम्, नोपपद्यते ।
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तथाहि - 'ज्ञानविषयतया इन्द्रियसंनिकर्षादिनियम्यत्वाज्ज्ञानस्यार्थस्य च परतः प्रकाश एव' इति नैयायिकादीनां मतं न युक्तम्, स्वसंवेदनस्य प्रसाधितत्वात् प्रत्यक्ष व्यवहारे प्रत्यक्षवस्यैव प्रयोजकत्वात् क्वचित् प्रत्यक्षत्वस्य काचिच प्रत्यचविषयत्वस्य तथात्वे गौरवात्, नीलज्ञानत्वाद्यपेक्षया नीलत्वादेरेव चक्षुरादिजन्यतावच्छेदकत्वे लाघवाच । एतेन 'ज्ञानाभेदः
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