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tator ० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
अर्थ
संनिकर्षादिश्व ज्ञानविषयतायां नियामकः, इति ज्ञानस्य स्वप्रकाशत्वम्, परतः प्रकाशत्वम्' इत्यन्येषामपि मतं प्रत्याख्यातम्, विषयताया ज्ञानस्वरूपत्वात्, ज्ञानभिन्नस्य ज्ञानाविषयत्वात् । अथ 'जीलस्य प्रकाशः' इति प्रतीतेनिलप्रकाशयोगेंद इति चेत् ? न विवेकेनाऽप्रतीयमानयोर्नीलतत्संविदोर्भेदाभावात्, 'अन्यथा नीलस्य स्वरूपम् 'प्रकाशस्य प्रकाशता' इत्यादावपि भेदसिद्धिप्रसङ्गात्, अभेदर्शनवा वकस्याप्युभयत्र तुल्यत्वात् । नानारेलीयाना द्विरर्थस्येति संयोज्य प्रत्येतुं शक्या, शक्यत्वे वा नियतसहोपलम्भयोः पृथगपोद्वार कल्पनाया अभेदनिश्चय पर्यवसायित्वादिति, तदुक्तम्- " सहोपलम्भनिय - मादभेदो नील-तद्वियोः" इति ।
[विज्ञान स्वसंवेद्य होने से बाह्यार्थ - ज्ञान का अभेद पूर्वपक्ष ]
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विज्ञान स्वसंवेद्य है अर्थात् उसका स्वरूप स्वतः स्फुरित होता है। क्योंकि उसकी स्वतः ही कारणान्तर की अपेक्षा विना अनुभूति होती है । बाह्यार्थवादी द्वारा कल्पित अर्थ का स्वयंसंवेदन नहीं होता। क्योंकि उसका स्वयंसंवेदन मानने में कोई युक्ति नहीं है, बल्कि उसका स्वयंसंवेदन मानने पर उन सभी का सब मनुष्य को ज्ञान अनायास सम्भव हो सकने से सभी मनुष्यों में सर्वज्ञता की आपत्ति होगी। इसलिये विज्ञान के अनुभव में बाह्यार्थवादियों द्वारा कल्पित अर्थ का भान नहीं उपपन्न हो सकता |
आशय यह है कि ज्ञान के अनुभव में नीलपीतादि श्राकार का भी भान होता है । यह तभी हो सकता है जब वह ज्ञानस्वरूप हो । ज्ञान से भिन्न होने पर वह स्वसंवेदन नहीं होगा । अतः ज्ञान के स्वयंसंवेदनात्मक अनुभव में ज्ञान भिन्न श्राकारों का भाव नहीं हो सकता । श्रतः ज्ञानभिन्न का ग्रहण न हो सकने से उनके अस्तित्व की कल्पना अयुक्त है ।
इसके विरुद्ध नैयायिकावि का यह मत कि "ज्ञान और ज्ञेय दोनों ही स्वसंवेद्य नहीं है । दोनों का ही कारणान्तर से प्रकाश होता है क्योंकि संवेद्यता यह प्रकाशमानता श्रर्थात् ज्ञानविषयतारूप है और ज्ञानविषयता इन्द्रियसंनिकर्ष आदि ज्ञानसाधनों से ही सम्पन्न होती है"-ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञान के स्वयंसंवेदन का साधन किया जा चूका है । दूसरी बात यह है कि यदि ज्ञान और शेय में भेद माना जायगा तो ज्ञान प्रत्यक्ष व्यवहार का प्रयोजक प्रत्यक्षत्व ज्ञानगतधर्मविशेष को मानना होगा और ज्ञेय में प्रत्यक्षव्यवहार का प्रयोजक प्रत्यक्षविषयत्व को मानना होगा । यतः एक विधव्यवहार में प्रयोजकभेद की कल्पना में गौरव होगा ।
इसके अतिरिक्त नीलत्वादि को ज्ञानधर्म न मानकर बाह्यार्थ का धर्म मानने पर नीलज्ञानत्यादि को चक्षु आदि का जन्यतावच्छेदक मानना होगा। इसकी अपेक्षा नोलत्वादि को चाक्षुष अदि ज्ञान का धर्म मानकर उसी को चक्षु घादि का जन्यतावच्छेदक मानने में लाघव है ।
[ ज्ञान और अर्थ में भेदसिद्धि अशत्रय है ]
कुछ अन्य विद्वानों का यह मत कि "ज्ञान में ज्ञानविषयता का नियामक ज्ञानाभेद है और ज्ञेय में ज्ञानविषयता का नियामक संनिकर्षादि है । अतः ज्ञान तो स्वप्रकाश है किन्तु अर्थ पर* स्तबक १ का० ८४ का विवरण दृष्टव्य ।