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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
होती है इसलिये नाश को सहेतुक मानना उचित नहीं है ।" इस प्रकार जैसे नाशहेतुतया प्रभिमत में नाश जनकता का निराकरण बौद्ध मत में किया जाता है उसी प्रकार कार्य का आश्रय लेकर ये विकल्प उठाये जा सकते हैं कि १. भायजनकत्वेन अभिमत पदार्थ सरस्वभाव जन्य का जनक होता है ? अथवा २. असत्स्वभाव अन्य का जनक होता है ? अथवा ३. सत्-असत् उभयस्वभाव जन्य का जनक होता है ? किंवा ४. न सत्-न असत् अनुभयस्वभाव जन्य का जनक होता है। इन चारों विकल्पों में दोष बताकर मावहेतुतया अभिमत वस्तु में भी भाव के जनकत्व का तिरास किया जा सकता है |१९| २० वीं कारिका में उक्त विकल्पों में प्रथम दो विकल्पों में दोष बताया गया हैएतदेव स्पष्टयन्नाद्यविकल्पे दोषमाह
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मूलम् — न सत्स्वभावजन कस्तद्वैफल्यप्रसङ्गतः ।
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जन्मायोगादिदोषाच नेतरस्यापि युज्यते ॥ २० ॥
न सत्स्वभावजनकः =नोत्पादहेतुः सत्स्वभावजन्यजनकस्वभावः । कुतः १ इत्याहतद्वैफल्यप्रसङ्गतः - सत्स्वभावत्वेनैव जन्यस्य जनकव्यापार फल्याद, सत एव करणे चानिष्ठितेः । यदि च 'स्वकारणादुत्पत्तिरात्मलाभो यस्य स स्वोत्पत्तिधर्मा तं यदि स्वहेतुनपादयेत् तदा विरुद्धमभिधानं स्यात् उत्पच्यनन्तरं च तस्य स्त्रत एवं नाशात् कस्य पुनरुत्पचिरिति नानिष्ठितिरि' त्युच्यते, तदा विनाशकारणाद् विनाश आत्मप्रच्युतिलक्षणो धर्मों यस्य तं यदि विनाशहेतुर्न विनाशयेत् तदा विरुद्धाभिधानं स्यादित्याद्यपि तुल्यम् ।
[ मत्स्वभावजनकता में व्यापारनिष्फलता आपत्ति ]
भावहेतुतथा अभिमत पदार्थ को यदि सत्स्वभाव जन्य ( कार्य ) का जनक माना जायगा तो वह उत्पादक न हो सकेगा क्योंकि कार्य सत्स्वभाव होने से पहले से ही विद्यमान होगा अतः उस के सम्बन्ध में कारणव्यापार निरर्थक होगा, क्योंकि सत्ता का सम्पादन हो कारण व्यापार का फल होता है । जब जन्य में वह प्रथमतः सिद्ध रहेगा तो कारण व्यापार को कुछ सार्थकता नहीं हो सकती। यवि कार्य के सत् होने पर भी कारण उसका उत्पादक होगा तो वह कार्य को उत्तरोत्तर उत्पन्न करता ही रहेगा ! अतः उत्पत्ति की निष्ठा पर्यवसान न हो सकेगा।
यदि कारण सत्स्वभाव जन्य का जनक होता है इस विकल्प की यह व्याख्या की जाय कि"अपने कारण से जिसकी उत्पत्ति अर्थात् जिसको स्वरूपलाभ होता है वह कार्य स्वोत्पत्तिधर्म होता है और कारण स्वोत्पत्तिधर्म कार्य का उत्पादक होता है । इस व्याख्या को स्वीकार करने पर उक्त बोष नहीं हो सकता क्योंकि यदि कारण ऐसे कार्य का उत्पादक नहीं होगा तो स्वाधीनोत्पत्तिधर्मक जन्य के जनकत्व का अभिधान विरुद्ध होगा। क्योंकि जब वह जन्य का उत्पाद ही नहीं करेगा तो जन्य तदधीन उत्पत्तिधर्मक कैसे कहा जायगा ? अतः इस व्याख्या में कारणव्यापार के नरर्थक्य की आपत्ति नहीं हो सकती । तथा उत्पत्ति की निष्ठा (समाप्ति) का अभाव भी प्रसक्त नहीं होता क्योंकि कारण से अब कोई भाव उत्पन्न हो जायगा तो उत्पत्ति के अनन्तर ही उसका नाश हो जायगा ।