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[ शास्त्रवा० स्त० ६ इलो० ११
अस्तित्व का प्रसङ्ग होगा। किन्तु, तज्जातीयकार्य उत्पादक सामग्री जन्यता से ही लज्जातीयत्व की सिद्धि होती है। जैसे घट-पट आदि कार्य परस्पर विजातीय हैं अतः घट जातीय कार्य की उत्पादक सामग्री से जो जन्य होता है यह घट-जातीय होता है और पट जातीय की सामग्री से जो पद उत्पन्न होता है वह पट जातीय होता है किन्तु माया जितने भी हैं वे सब एकरूप होते हैं । उन में कोई जात्य नहीं होता। अतः किसी भी नाश को सामनो विजातीय कार्य की सामग्नो नहीं कही जा सकती। अत एव अपनी अपनी विभिन्न सामग्री से उत्पन्न होने पर भी विभिन्न नाश में एकरूपता का व्याघात नहीं हो सकता।
एतेन 'प्रतिपुरुष कर्मणां विशेषात तत्क्षयस्यापि जन्यस्य लतो विशेषसंभवात् प्रतिपुरुष मुक्तिचिच्यं स्यात्' इति निरस्तम् , अविशिष्ट स्वस्वभावस्य हेतुसहस्र णापि विशेषयितुमशक्यत्वात् , विभिन्नसामग्रीजन्यतायां च प्रतियोगिभेदस्यैव निवेशनीयवादिति विपश्चितमन्यत्र । एतेन तद्रूपावच्छिन्नजन्यतारूपं खातव्यं नोल्पादे, नाशे च तदव्याहतम्', घटध्वंसाथितया प्रवृत्तेः' इत्युक्तारपि न क्षतिः।
[प्रतिव्यक्ति निद परिका मात्तर ] बौद्ध की ओर से विनाश को हेतुजन्य मानने पर एक यह भी दोष दिया जाता है कि 'प्रतिपुरुष में कर्मों के भेद होने से उनका क्षय भी, हेतुजन्य होने पर हेतुनों में विशेष होने के कारण, विशिष्ट होगा। अतः पुरुपभेद से कर्मक्षयल्प मुक्ति में वचित्र्य को प्रापत्ति होगी। किन्तु यह दोष भी ठीक नहीं है क्योंकि कर्मक्षयरूप मुक्ति जब स्वभावतः अविशिष्ट समान है तो सहस्त्र हेतुओं से भी उनमें विशिष्टता=असमानता का सम्पादन नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाय कि-'यदि सभी कर्मक्षय समान होंगे तो पुरुषमेव से भिन्न ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप कर्मक्षय को परस्पर निरपेक्ष सामग्री से अविशिष्ट कर्मक्षय की उत्पत्ति मानने पर एक-एक सामग्री का अन्य अन्य सामग्रोजन्य कर्मक्षय के प्रति व्यभिचार होगा तो यह ठीक नहीं हैजयोंकि विभिन्न सामग्री की जन्यता में अवच्छेदक सम्बन्ध से प्रतियोगी विशेष का निवेशकर तत्तत्पुरुषीय ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षण सामग्री हेतु होती है ऐसा मानने पर वह दोष नहीं हो सकता। इस विषय का विशेष विस्तार अन्यत्र इष्टध्य है ।
अगर बौद्ध ऐसा कहें कि- "नाश के सहेतुकत्व पक्ष में हेतुमेद से नाश में स्वरूपभेदानुभव का आपादन करने पर जन को ओर से उत्पाद के सम्बन्ध में भी जो हेतुभेद से स्वरूपभेद का आपादन दिया गया वह उचित नहीं है क्योंकि उत्पाद से अन्वित घटादिरूप धर्मों में दहत्त्वादि तत्तद्रूपावच्छिन्न जन्यता मानने से उत्पाद में तत्तद्रूपावच्छिन्नजन्यतारूप स्वाताम्य नहीं होता क्योंकि उत्पाद की उत्पत्ति को कामना से दण्डादिग्रहण में मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं होती कि तु घटोत्पाद की काममा से वण्डादिग्रहण में प्रवृत्ति होती है । अतः हेतुभेद से उत्पाव में स्वरूपमेदानुभव का आपादन नहीं हो सकता किन्तु नाश में स्वतन्त्ररूपसे मुदगरश्वादि से अवच्छिन्न मुबंगराव की जन्यता में कोई व्याधात नहीं है क्योंकि घटध्वंसादि की कामना से मुवगरादिग्रहण में मनुष्य की प्रवृत्ति होती है।"-बौद्ध द्वारा यह कहे जाने पर भी कोई क्षति नहीं है क्योंकि उक्त रोति से विनाश में कार्ययजात्य का प्रयोजक सन्निहित नहीं है।