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स्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
यपि 'किच, अस्य हेतुमखेऽपि नाशप्रसङ्गो दुरुद्वरः' इत्याद्यभाणि तदपि न निरवद्यम्, समुदयकृतादिनाशविशेषत्य नष्ट इति व्यवहारहेतोर्विशेषसामरस्यभावादेवाभावात् 'बैलक्षण्यरूपवस्तुलक्षणघटकस्य तु कस्यचिद् नाशस्य तत्राभ्युपगमादेव । न च कपालादिनाश एवं तदाश्रितघटना शादिना शहेतुरिति वाच्यम्, अस्माकमाश्रयनाशस्याश्रितनाशाहेतुत्वात्, घटतद्रूपादीनामेकद्वैव नाशाद, तत्तनाशविशेषे तत्तच्छक्तिविशेषस्यैव नियामकत्वात् । किञ्च, कार्यत्वेन नाशहेतुत्वमप्याकाशादीनां नाशानुपपत्त्यैव कल्प्यते, अन्यथा सच्चेनैव तवं स्यात्, तथा च नाशस्यापि तदनुपपच्या नाशेतरत्वमपि निवेश्यताम्, गौरवस्य प्रामाणिकत्वादिति । यदपि मृद्गरादेः कपालाद्युत्पत्तावन्तरा सादर्शनमुक्तम्, तदनुक्तोपालम्भमात्रम् । तस्माद् नाकिञ्चिद्रूपो नाश इति सिद्धः सहेतुकोऽयम् ॥ ११ ॥
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[ 'विनाशो नष्टः ' यह आपत्ति अशक्य ]
विनाश को सहेतुक मानने पर विनाश के नाश करे जो बुरुहर प्रापत्ति दी गई वह भी ठीक नहीं है। क्योंकि- विनाश भी एक वस्तु है और वस्तु का लक्षण है उत्पत्ति, विनाश और प्रौध्य । अत एव विनाश का वस्तु लक्षण घटक विनाश मान्य ही है। किन्तु उससे 'विनाशो नष्ट:' इस व्यवहार की आपत्ति नहीं दी जा सकती क्योंकि 'नष्ट:' इस व्यवहार का हेतु विशेष प्रकार का नाश होता है जिसे समुदयकृत आदि शब्दों से व्यवहृत किया जाता है। वह नाश विशेष सामग्री से प्रादुर्भूत होता है । विनाश में इस विशेषसामग्री का अभाव होने से विनाश का वह विशेष नाश नहीं होता अतः 'नाशो नष्ट: ' यह व्यवहार नहीं होता । यदि यह कहा जाय कि - 'कपालादि का नाश कपालाश्रित घटनाश के विशेषताश का हेतु है अत एव घटनाश का वस्तुलक्षणघटकनाश से अतिरिक्त भी नाश होने से 'घटनाशो नष्ट:' इस व्यवहार की प्रापति होगी' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जैन मत में आश्रय. नाश आश्रितनाश का हेतु नहीं होता किन्तु जंन मत में घट और घटरूपादि का एक काल में ही नाश होता है । घट और घटरूपादि के नाशक में ऐक्य होने पर भी उसमें तत्तनाशानुकूल शक्ति भेद होने से तत्तनाश में भेद सिद्ध होता है। उसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि जैसे श्राकाशादि का नाश नहीं होता इसलिये नाश के प्रति सत् रूप से कारणता न मानकर कार्यत्व सत्वविशिष्ट कार्यरूप से कारणता मानी जाती है इसीप्रकार नाश का भी नाश मानना उचित है। कारणतावच्छेदक कोटि में नाशैतरत्व के निवेश से उपस्थित गौरव भी प्रामाणिक होने से सा है ।
इस संदर्भ में बौद्ध की ओर से जो यह दोष दिया गया कि मुद्गरादि का संविधान (प्रहार) और कपालादि के उत्पत्ति के मध्य ध्वंसरूप अतिरिक्त पदार्थ का दर्शन न होने से ध्वंस का अस्तित्व मानना उचित नहीं है । यह भी दोष अनुचित है क्योंकि यह अनुक्त का उपालम्भ है । आशय यह है कि यदि मुद्गरादि संविधान और कपालादि की उत्पत्ति के मध्य यदि फपालादि से सर्वथा भिन्न घटध्वंस का अस्तित्व माना जाता तो उक्त उपालम्भ उचित होता किन्तु कपालात्मक घटव्यं मानने पर अर्थात् घध्वंस को कपाल के संदंश और घट के असवंश से अनुविद्ध मानने पर उक्त उपालब्ध नहीं हो सकता क्योंकि उस रूप में घटयंस का दर्शन होता ही है ।