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[ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ६ श्लो० १२-१३
अतः सम्पूर्ण विचारों का निष्कर्ष यह है कि नाश अकिश्वित् यानो तुच्छ नहीं, अपितु सहेतुक वस्तु है ।। ११ ।।
१२वीं कारिका में नाश को सहेतुक न मानने पर अन्य दोष बताया गया है
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अन दोपरान्तरमाह -
मूलम् - किञ्च निर्हेतुके नाशे हिंसकत्वं न युज्यते ।
व्यापायते सदा यस्मान्न कश्चित्केनचित्क्वचित् ॥ १२ ॥
किञ्च, निर्हेतुके नाशेऽभ्युपगम्यमाने हिंसकत्वं न युज्यते क्वचित् कस्यचित् । कथमित्याह-यस्माद्धेतोः, सदा के लुब्धकादि काशिकरादिः न व्यायाद्यते, अहिंमादशायामिव हिंसादशायामपि प्राणिक्षण ( न स्वत एव नथरत्यात्, सांवृतनाशस्य खपुष्पवदनुत्पाद्यत्वादिति भावः ॥ १२ ॥
[ चौद्धमत में शिकारी को हिंसक नहीं कह सकते ]
नाश को निर्हेतुक मानने पर कोई किसी का हिंसक न हो सकेगा। क्योंकि कोई भी शिकारी aft at a fraी भी स्थान में शुकरादि किसी भी प्राणी का किसी भी काल में व्यायातक प्राणघातक नहीं होता । श्राशय यह है कि बौद्ध मत में सभी भावमात्र क्षणिक होने से शुकरादि प्राणि क्षण जैसे श्रहिसा दशा में प्रतिक्षण स्वतः नष्ट होते रहते हैं उसी प्रकार हिंसा दशा में भी स्वतः ही नष्ट होते हैं । अत एव शिकारी आदि से उनका नाश न हो कर स्वतः ही उनका नाश होता है। सांवृत = व्यावहारिक प्राणिनाश का जनक मान कर भी शिकारी को प्राणी का हिंसक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सांवृत नाश प्रकाशपुष्प के समान अलीक होने से उत्पाद्य नहीं हो सकता ।।१२ ॥ १३ वीं कारिका में इस सम्बन्ध में बौद्ध सम्मत उत्तर को आशंका कर के उसका परिहार किया गया है
पराभिप्रायमाशक्य परिहरति
मूलम् कारणत्वात्स संतानविशेषप्रभवस्य चेत् ? । हिंसकस्तन्न संतानसमुत्पतेरसंभवात् ।।१३।।
सः - लुञ्धकादिः, संतान विशेषप्रभवस्य शूकरादिविसभागसंतानोत्पादस्य कारणत्वाद् हिंसकः-शूकरादिव्या पाढकः चेत् ? यद्येवं मन्यसे । तन्न तदयुक्तम्, स्त्वदभिप्रायेणाऽसंभवात् ॥१३॥
संतानसमुत्पते
बौद्ध मतानुसार 'शिकारी आदि' सन्तानविशेष की यानी शुकरादि से विलक्षण सम्तान की उत्पत्ति का कारण होने से शुकरादि का हिंसक होता है। क्योंकि शूकरसन्तानकाल में स्वतः उत्पन्न होने वाले शूकरक्षणविनाश और शूकरक्षण से विलक्षण सन्तान रूपी विनाश ये दोनों भिन्न होते हैं इसमें दूसरा विनाश स्वतः न हो कर शिकारी आदि के प्रयत्न से होता है । किन्तु ग्रन्थकार का
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