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[ शास्त्रवा० स्त० ५ श्लो० ६
च्छेदक से अवच्छिन्न, प्रतियोगिभिन्न जो जो हो उन सब का समधान योग्यता है। योग्यताकुक्षि में प्रतियोगिभिन्नत्व का निवेश करने से घायु में रूपाभाव के प्रत्यक्ष में कोई बाधा नहीं हो सकती, क्योंकि,-पद्यपि रूप भी चक्षजन्य भावविषयक यावदग्रह के जनकतावच्छेदकोदभूतरूपत्व से विशिष्ट है किन्तु वह रूपाभाव के प्रतियोगी से भिन्न नहीं हैं, अत एव रूपानाच स्पलम्भक योग्यता * शरीर में उसका सन्निवेश नहीं है।"
[नैयायिकमत में ब्राह्मणवाभाव प्रत्यक्ष की आपत्ति ] किन्तु योग्यता के निर्वचन का नैयायिकों का यह प्रयास भी दोषमुक्त नहीं है। क्योंकि इस प्रकार की योग्यता से विशिष्ट प्रतियोगी के अनुपलब्धि को अमाव का ग्राहक मानने पर शूद्रादि में ब्राह्मण्याभाव के प्रत्यक्ष को आपत्ति होगी क्योंकि उन में ब्राह्मण्याभाव की उपलम्भक उक्तविध योग्यता और ब्राह्मण्य की अनुपलब्धि विद्यमान है। दूसरा दोष यह है कि 'उक्तविध यावत्प्रतियोग्युपलम्भकविशिष्ट अनुपलब्धि' प्रभाव को ग्राहक है अथवा 'अनुपलब्धिविशिष्ट उक्तविध यावत्प्रतियोग्युपलम्भक' अभाव का ग्राहक है इस में कोई विनिगमना नहीं है। प्रतः गुरुभूत दो कार्यकारणभाव की आपत्ति होगी। तीसरा दोष यह है कि तथाविधयावतप्रतियोगिउपलम्भकविशिष्टानुपलब्धि को अभाव प्रत्यक्ष के प्रति कारण मानने पर, इन्द्रियाबि का अनुपलब्धिनिष्ठ कारणता का अवच्छेदक कुक्षि में प्रवेश हो जाने से उनमें प्रभावप्रत्यक्षकारणता का लोप हो जायगा, क्योंकि कारणतावच्छेदक प्रथमान्यथासिद्धिग्रस्त होने से कारणलक्षण से गृहीत नहीं हो सकता।
केचिनु-'यद्धर्मावच्छिन्नपतियोगिनि प्रतियोगितन्सन्निकर्पविरहमात्रप्रयुक्तो यदधिकरणविशेष्यकलौकिकोपलम्भविषयत्वाभावस्तदधिकरणे तद्धर्मावच्छिन्नाभात्रो योग्यः । तत्प्रयुक्तन्वं च स्वरूपसंबन्धविशेषः, 'कारणाभावप्रयुक्त कार्याभावः' इति प्रत्ययात् । अस्ति चेदमालोकादिमतिभूतले, तत्र घटानुपलम्भस्य तन्मात्रप्रयुक्तत्वात् । एवं स्तम्भे पिशाचानुपलम्भेऽपि बोध्यम् , पिशाचलादेरयोग्यत्वे मानाभावात, सहकारिविरहादेव कार्याभावाद् नित्यस्येति व्याप्तेरसिद्धः। भृतले पिशाचानुपलम्भस्तु न तन्मात्रप्रयुक्तः उद्धृतरूपाभावस्यापि तत्र प्रयोजकत्वात् ।
[ अधिकरण घटित योग्यता की व्याख्या] कुछ विद्वानों का यह कहना है कि
"यद्धमविशिष्ट प्रतियोगी में यदधिकरणविशेष्यक लौकिकप्रत्यक्षविषयत्वाभाव प्रतियोगि और प्रतियोगि के साथ इन्द्रियसन्निकर्ष इन दोनों के विरहमात्र से प्रयुक्त होता है-तद्धर्मावच्छिन्न अभाव तदधिकरण में प्रत्यक्षयोग्य होता है । इस योग्यता के निर्वचन में जो तादृशोपलम्भविषयत्वाभाव में प्रतियोगी और तत्सग्निकर्षविरहमात्रप्रयुक्तत्व प्रविष्ट है वह जन्यत्व या जन्यजन्यत्यरूप
नहीं किन्तु स्वरूपसम्बन्धविशेष है, जो 'कारणाभावात् कार्याभाव' कार्याभाव कारणाभावप्रयुक्त ! होता है" इस प्रतीति से ही सिद्ध है । आशय यह है कि कारण के प्रभाव से होने वाला कार्याभाव * कार्यानुत्पत्तिरूप होता है और कार्यानुत्पत्ति का अर्थ होता है कार्यप्रागभाव । वह अनादि होने से न तो
कारण भावजन्य हो सकता और न जन्यअन्य हो सकता है किन्तु उसमें कारणभावप्रयुक्तत्व व्यवहत