________________
पृष्ट
पृष्ठं
विषयः ६६ ज्ञान सम्बन्धी विकल्पों की समीक्षा ६७ ग्राह्य-ग्राहक उभय-अनुभयस्वभाव दुर्घट ६८ नियत एकाकार ज्ञान का उपादान
चित्राकार एक दर्शन ६८ देवेन्द्र बौद्धवादी मत का उपक्षेप ६९ एक चित्र ज्ञान की कल्पना असंगत-उत्तर पक्ष ७१ एकत्व-अविधात रूप विवेचन उभयपक्ष में
समान ७२ ज्ञान का अस्तित्व विलुप्त हो जाने की
आपत्ति ७२ चित्रज्ञानवादी को सर्वशून्यता की आपत्ति ७३ बाह्यार्थ विवेचनरूप ज्ञान से बाह्याथ का
असत्त्व कसे? ७३ असत्व अवयविबुद्धि से या अवयवबुद्धि से ७४ अकर्मक होने से विज्ञान का ग्राह्य कोई नहीं
है-पूर्वपक्ष ७५ ज्ञान-क्रिया का अकर्मक प्रयोग क्यों नहीं ? ७६ ज्ञान की अकर्मकता में प्रमाण नहीं है
उत्तर पक्ष ७७ सविषयकत्वस्वरूप सकर्मकत्व अपरिहार्य । ७८ अकर्मक प्रकाशमात्रता के बौद्ध समर्थन का
प्रतिक्षेप ७६ दोषविज्ञान और द्विचन्द्रज्ञान में असाम्य ७६ अकर्मक प्रकाशंकस्वभाव कोई वस्तु नहीं ८० दृष्टान्तमात्र से साध्यसिद्धि असम्भव ८० बिज्ञानवाद में संसार-मोक्ष में समानता ८१ मन ही संसार मन ही मोक्ष १२ क्लिष्टता के हेतु ज्ञानाभिन्न नहीं ८२ क्लिष्टता के हेतु के अपगम से शुद्धि अविर्भाव ८३ बाह्यार्थता शब्द के औचित्य की उपपत्ति । ८३ चित्त को क्लिष्टता सहज होने पर मुक्ति
अयोग ८४ स्वभावतः क्लिष्टता-अक्लिष्टता की
आशंका ८५ चित्त क्लिष्टता अकारण नहीं हो सकती
विषयः ८६ प्रत्येक असत् कार्यजनक नहीं होता-बौद्ध ८६ पूर्ववर्ती क्लिष्टचित्तक्षण अतिरिक्त हेतु नहीं
बन सकता ८७ मुक्ति के अभाव में तत्त्वचिता व्यर्थ ४८ विज्ञानवाद अनुपपन्न-उपसंहार ८९ से २१६ स्तवक ६ ८९ वीर भगवान् के घरण-शरण की भावना १६ भगवान् के चरण की उपासना क्यों ? ६. शंखेश्वर पाश्वनाथ की अजीव महिमा ९१ नाशहेतु अयोग के कथन में बौद्धाशय २२ मा असत्ति हेतु अयोग प्रसंग का
प्रतिकार ६३ अभाव भाव बन जाता है-इस में सम्मति ९४ उत्पत्तिवत् नाश में सहेतुकता की उपपत्ति ९५ सहकारी तो कुछ भी करता है ? ६५ एककालीन पदार्थों में कार्यकारणभाव नहीं ९६ सहकारीकृत विशेषता हेतु में नहीं, फल में
होती है-शंका ६७ सहकारी सांनिध्य को अकिंचित्कर मानने
में आपत्ति-उत्तर १८ पाकार्थी की अग्नि में नियत प्रवृत्ति के
अपलाप का साहस ९९ मुद्गरादि के संनिधान विना कुर्वद्रूपत्व का
असम्भव १६ बौद्ध शुभगुप्तादि के द्वारा पक्षपात का आक्षेप १०० अस्थानपक्षपात बौद्धमत में अनिवार्य-उत्तर १०० मुद्गर से तत्स्वभावता का आधान उभयत्र
तुल्य १०१ नाश्च से नाश के भिन्नाभिन्नत्व की चिता
व्यर्थ १०२ नाश के बाद घट के पुनः उन्मजन की
आपत्ति १०३ सहेतुक पक्ष में नाश की आपत्ति " १०३.घटनाश नाश की परम्परा मानने में
मापत्ति