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! शास्त्रवास्ति०६ श्लो०-३६
स्वोत्पत्ति के प्रव्यवहित उत्तरक्षण में उत्पन्न होने वाले ध्वंस के प्रतियोगित्वरूप में प्रसिद्ध है । इस प्रसिद्धि का प्राधार भाव की उत्पत्ति के अव्यवहितोत्तरक्षण में भाव के ध्वंस की उत्पत्ति है और यह ध्वंस उत्तरभावात्मक है। किन्त अन्त में नाशदर्शन की अन्यथानपपत्ति से भाव अपने उत्पत्तिक्षण में भी जिस नाश से ग्रस्त होता है वह नाश अमन्य है जो निवृत्ति' शब्द से व्यवहत होता है, अतः भाव प्रतिक्षण नश्वर है इसका अर्थ है भाव प्रतिक्षण निवृत्त है। इस प्रतिक्षणनिवृत्ततारूप क्षणिकता के ही साधनार्थ 'अन्त में नाशदर्शन' रूप हेतु का उपन्यास किया गया है।
इसके विरुद्ध ग्रन्थकार का कहना यह है कि वस्तु का स्वभाव यह है।-'अन्त में ही नष्ट होना' अतः उससे भाव का प्रतिक्षण नश्वरत्व कदापि नहीं सिद्ध हो सकता। यदि आद्यक्षण में भी वह नाशस्वभाव होगा तो उसके नाश को अदृश्य स्वभाव मानना होगा क्योंकि श्राद्यक्षण में उसके नाश का दर्शन नहीं होता और जब वह अदृश्यनाशस्वभाव हुआ तब उसमें दृश्यनाशस्वभावत्वाभाष की आपत्ति होगी, फलतः अन्त में भी नाश के दर्शन को उपपत्ति न हो सकेगी ॥३॥
___३९वीं कारिका में पूर्वकारिका में उक्त विषय का समर्थन करते हुये उसके विरुद्ध बौजाभिप्राय का उल्लेख किया गया है
एतदेव समर्थयभाह___ मूलम्-आदौ क्षयस्वभावे च तत्रान्ते दर्शनं कथम् ।
तुल्यापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भायथोदितम् ॥ ३९ ॥ आदी प्रथमक्षण एव, क्षयस्वभावे च-नाशस्वभावे च, तत्र-वस्तुन्यभ्युपगम्यमाने, अन्ते दर्शनं कथम् ? आदावेव किं न तदर्शनम् । इति भावः। पगभिप्रायमाह-तुल्यापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भात-सदृशोत्तरोत्तर क्षणप्रतिरोधात् अन्न एव तद्दर्शनम् , नादौं, प्रतिबन्धकसत्त्वादिति । अत्र स्वाभियुक्तसम्पतिमाह-यथोदितं पूर्वप्रन्ये वृद्धः ॥ ३६॥
[ नूतन नूतन उत्पत्ति से नाश का अदर्शन-चौद्ध ] यदि भाव को प्रथमक्षण में ही नाशस्वभाव माना जायगा तो जब प्रथमक्षण में उसके नाश का दर्शन नहीं होता तो अन्त में उसका दर्शन कैसे हो सकेमा ? अर्थात् अन्त में नाशस्वभाव के सश यदि आद्यक्षण में भी भाव नाशस्वभाव होगा तो आशक्षण में हो उस नाश का दर्शन क्यों नहीं होता? इस प्रश्न के उत्तर में बौद्ध का यह कथन है कि पूर्वक्षण के सदृश उत्तरोत्तरक्षणों की उत्पत्ति होती है। उन सदृश क्षणों से प्रतिरोध होने के कारण प्रारम्भ में नाश का दर्शन न होकर अन्त में ही होता है, क्योंकि प्रारम्भ में महशोत्तरक्षण रूप दर्शन का प्रतिबन्धक उपस्थित रहता है और अ.त में उक्त प्रतिबन्धक न होने से नाश का दर्शन होता है । यह उक्त प्रश्न का उत्तर आधुनिक नहीं है किन्तु इस उत्तर में पूर्वाचार्यों की भी सम्मति है क्योंकि उन के ग्रन्थों में यह बात कही गई है ॥३९॥
४० वीं कारिका में बौद्धमत के पूर्वाचार्य के उस कथन को उद्धृत किया गया है जिसका संकेत पूर्व कारिका में दिया गया है . .