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(शास्त्रवाता० स्त०६ श्लो० ३२
अवश्य होता है जैसे कोई बालक पैदा होता है तो बाल-कुमार-सुवा-बुद्ध प्रादि रूपों में उसमें अतादवस्थ्य होने पर भी उन सभो अवस्थाओं में देहात्मकता बनी रहती है। एवं मृत्पिड का घटशराबउद-चन आदि रूपों में परिवर्तन होने पर भी उन सभी रूपों में मिट्टीरूपता बनी रहती है, इस तथ्य को कोई भी विवेकशील अस्वीकार नहीं कर सकता। क्योंकि यह सार्वजनीन अनुभव पर प्राधारित है । कहना यह है कि जहाँ चित्राकार ज्ञान होता है यहाँ नील-पोतावि विभिन्न प्राकारों का भी अवश्य उपलम्भ होता है किन्तु उसमें एकरूपता का उल्लम्भ भी अबाधितरूप से उत्पन्न होता है । अतः उस वस्तु में चित्रेकरूपता मानने में कोई विरोध नहीं होता । उसी प्रकार बाल-कुमारादि परिणामरूप से देह में भेव सिद्ध होने पर भी स एवार्य देहः यह वही शरीर है। इस प्रकार बाल-कुमार आदि सभी अवस्थाओं में अभेद ग्रह होने के कारण बाल-कुमार आदि विभिन्न अवस्थाओं में परिवत्तित होने वाले देह के स्थैर्य का बाध नहीं हो सकता। क्योंकि उसमें बाल-कुमारादि रूप में भेद और देहरूप में अभेद दोनों ही अनुभवसिद्ध है । अत एक दोनों का एक समावेश सर्वथा संगत है। इस विषय का विस्तृत विचाराने किया इमा।।
___३२ वीं कारिका में उक्त विचारों के फलस्वरूप जो अवश्य रवीकार्य सिद्ध होता है उसका उपपादन किया गया हैइत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याहमूलम्-नार्थान्तरगमो यस्मात्सर्वथैव न चागमः ।
परिणामः प्रमासिद्ध इष्टश्च खलु पण्डितैः ॥ ३२॥ यस्मात कारणाद् नार्थान्तरगमः=न सर्वथाऽर्थान्तरगमनम् , न च सर्वधैवागम:एकान्तेनार्थान्तरागमनम् , परिणामः प्रमासिद्धः-प्रमाणप्रतिष्ठितः इष्टश्च स्खलु-निश्चितम् , पण्डितः तद्भावः परिणामो यत तत्तेन तथा भूयते" इति वचनात् । युक्तं चैतत् , सुवर्ण हि कुण्डलतया परिणममानं न सर्वथैव कुण्डलभावं भजते, सुवर्णरूपस्यापि परित्यागापत्तः, न च सर्वथा न भजतेऽपि, अकुण्डलत्वप्रसङ्गात् । येन च रूपेण यत्र स्वकालीनम्बाभिन्नोत्पादप्रतियोगित्वं तेन रूपेण तत्र तत्परिणामत्व व्यवहारः, यथा 'कुण्डलं सुवर्णपरिणामः' इति, न तु 'सुवर्ण परिणामः' इति ॥ ३२ ॥
[पंडितों को मान्य परिणाम की व्याख्या ] परिणाम का यह स्वरूप प्रमाण द्वारा सिद्ध है कि परिणाम में वस्तु का अन्य अर्थ में सर्वथा परिवर्तन नहीं होता और सर्वथा उसका अपरिवर्तन भी नहीं होता किन्तु वस्तु का किसी एकरूप को त्याग कर किसी नये रूप को ग्रहण करना हो इसका परिणाम कहा जाता है । विद्वानों ने परिणाम का स्वरूप निश्चित किया है । इसी आशय का एक प्रसिद्ध वचन है जिसका अर्थ यह है-किसी वस्तु का अन्याश रूप में अवस्थित होना ही उस वस्तु का परिणाम है जिसको "तस्य तथाभावः' अर्थात् वस्तु मूलतः वही है किन्तु उसकी अवस्था नयी है। इस प्रकार कहा जाता है । विचार करने पर परिणाम का यह स्वरूप युक्तिसङ्गत भी प्रतीत होता है । जैसे सुवर्ण कुण्डल के रूप में परिणत