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स्या० क० टीका एवं हिन्धी विवेचन ]
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कुछ अन्य लोगों ने तत्कार्य की उत्पत्ति में तत्कार्य से अवच्छिन्न अर्थात् अव्यवहितपूर्वस्व सम्बन्ध से तत्कार्यविशिष्ट यावत्कारणसमवधानरूप सामग्री को नियामक माना है। उनका आशय यह है कि घटादि और दण्डावि में घटत्व और दण्डत्वरूप से ही सामान्य कार्यकारणभाव है। तटस्थ और तदृष्यत्व आदि रूप से कार्यकारणभाव नहीं है किन्तु घटस्वावच्छिन्न के दण्डत्वाचवच्छिन्न कारण, जिस घरव्यक्ति के अव्यवहितपूर्यत्व से अवच्छिन्न होता है उनका समवधान तघटोत्पत्ति का नियामक होता है। व्याख्याकार का कहना है कि उक्त कथन भी सामग्री को समग्र कारणों से भिन्न-भिन्न परिणाम विशेषरूप बताने का शब्दान्तर से एक प्रकार ही है। इस सम्बन्ध में पाठकों द्वारा अपनी बुद्धि के अनुसार अधिक विचार किया जा सकता है ।। ३०॥
३१ वीं कारिका में क्षणिकत्व के साधक परिणामरूप तीसरे हेतु को दोषयुक्त बताया गया है'परिणामात्' इति तृतीयहेतु दूषयितुमाहमृलम्-परिणामोऽपि नो हेतुः क्षणिकत्यप्रसाधने ।
__ सर्वदैवान्यथास्वेऽपि तथाभावोपलब्धितः ॥ ३१ ॥ परिणामोऽपि अतादवस्थ्यलक्षणः नो हेतुः न समर्थः, क्षणिकत्वप्रसाधनेनिरन्वयनाशसाधने । कथम् ? इत्याह-सर्वदेव सर्वकालमेव अन्यथात्वेऽपि बाल-कुमारादिभावेन घर-शराबादिभावेन च विभिन्नरूपत्वेऽपि तथाभावोपलन्धित: देह-मृदादिभावोपलब्धेः । अयं भायः-चित्रज्ञाने नानाकारोपलम्भेऽप्येकरूपोपलम्भाद् यथा चित्रैकरूपताऽविरोधः, तथा परिणामित्वेन भेदसिद्धाबपि 'सोऽयं देहः' इत्याद्यभेदोपलम्भाद् न स्थैर्यबाधा, अनुभवसिद्धयोभदाऽभेदयोरपि समावेशात् । अपश्चयिष्यते चेदमुपरिष्टात् ।। ३१ ॥
[क्षणिकत्व साधक तीसरे परिणाम हेतु की परीक्षा ] बौद्धों का कहना है कि "जो वस्तु जिस क्षण में उत्पन्न होती है उत्तरक्षणों में वह अपनी प्रथमक्षण की अवस्था में ही नहीं रहती किन्तु प्रतिक्षण उसमें अतादधस्थ्य यानी कुछ बैलक्षण्य होता रहता है । इस प्रसादषस्थ्य को ही परिणाम कहा जाता है । यह परिणाम वस्तु की क्षणिकता का साक्षी है। कहने का प्राशय यह है कि उत्पन्न वस्तु का उत्तर क्षणों में उपचय अपचयात्मक जो भी परिवर्तन
1 बह उत्पन्न वस्तु के ज्यों का त्यों अक्षुण्ण रहते हुये नहीं हो सकता। यदि अपचय होगा तो अवश्य ही उसके कुछ अंश पृथक् होंगे। यदि उपचय होगा तो वह भी उसकी पूर्व रचना के ठोसरूप में यथावत बने रहने पर नये अंशों के मिश्रण से होने वाला उपचय सम्भव नहीं है। अत: दोनों ही प्रकार के परिवर्तन के लिये यह मानना आवश्यक होगा कि उत्पन्न व तु की रचना दूसरे-तीसरे क्षणों में तूटती है और उसी से उसमें नया परिवर्तन होता है। इस प्रकार अतावश्य से उसका प्रशिक्षण धिनाश होना निर्विवाद है।"
किन्तु इसके विपरीत ग्रन्थकार का कहना है कि वस्तु के प्रातादयस्थ्यरूप परिणाम से उसका निरन्वय नाश नहीं हो सकता क्योंकि 'जब उत्पन्न धातु अपनी पूर्वावस्था से विलक्षण अवस्था में दृष्ट होती है तब सदैव उत्तर अवस्थाओं में उत्पन्न वस्तु का मूलरूप में अविच्छेच स्वरूप अन्वय