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[ शास्त्रवा० स्त०६ श्लो०३०
अधिरकणीभूत क्षण कार्य प्रागभाव का अनधिकरण नहीं होता और कार्य प्रागभाव का अधिकरणीमूत क्षण कार्य का अधिकरण नहीं होता। और जो कालोपाधि कार्य का प्रधिकरण होती है वही कारण मानी जाती है। अत: उक्त क्षण कायाधिकरण न होने से कार्य का जनक नहीं है किन्तु कार्य को व्याय्य है। अर्थात तादात्म्य सम्बन्ध से उक्त क्षण जिसमें होता है उसमें अहिसपूर्वस्व सम्बन्ध से कार्य रहता है। किन्तु उक्त क्षणरूप सामग्री कार्योत्पत्ति का नियामक नहीं है और कार्योत्पति निमामक में ही सामग्रीपद का प्रयोग शिष्ट-सम्मत है।
मैवम् , सामरयाः समाव्यतिरिक्ता-ऽव्यतिरिक्तपरिणामविशेषरूपत्वात , धनस्य विधिच्यमानस्य भूतादाविव विविच्यमानायास्तरमा दण्डादौ विश्रामेऽप्यवियच्यमानायास्तद्वदेशत्लान् । अभिन्नकालकृतार्थान्तरभावेन च सा विभिन्नन्यवहारनिवन्धनम् , भिन्नकालकृतायान्तरभावेन च कार्योपधायिकेति तत्त्वम् । नैयायिकादिनापि हिं मानसादौ चाक्षुषसामरयादिप्रतिचन्धकतादिना लायादपि तस्या अर्थान्तरभूतायाः कल्पयितं युक्तत्वात । इति नेकान्तदोषेऽप्यनेकान्ते किमपि दूपणं पश्यामः । 'तत्र तत्कायोत्पत्तौ तदच्छिन्नयावल्करणसमवधानरूपायाः सामन्रथानियामकत्वम्' इत्यपरेषां शब्दान्तरम् । अधिक स्वधियाऽभ्यूह्याम् ।। ३० ॥
[जैन की ओर से सामग्री का स्पष्ट निर्वचन ] सामग्री के उक्त निर्वचन के बौद्ध द्वारा किये गये निराकरण का उत्तर देते हये जैन मनीषियों का यह कथन है कि सामग्री को समन कारणों से कश्चिद मिन्नाभिन्न परिणामविशेषरूप मानने से उक्त दोषों का प्रसङ्ग नहीं हो सकता । जैसे भू-तेजः-जल और वायु से बने हुये मेघ का विश्लेषण करने पर उसका तत्सदमतों में विश्राम होता है किन्त प्रविश्लेषण की स्थिति में मेघ एक हाता
विश्लेषण की स्थिति में मेघ एक होता है उसी प्रकार दण्डचनादि सामग्री का विश्लेषण करने पर उसका बण्उचकादि तत्तत्कारणों में विश्राम होने पर मो प्रविविक्तभाय से दण्डचनादि का परिणामविशेषरूप सामग्री एक होती है। आशय यह है कि जब कालविशेष से सामग्री में अर्थान्तरभाव यानी भेद का प्रयभास होता है तब वह भेदत्यवहार का निमित्त होता है अर्थात उस समय 'सामग्री एक व्यक्ति नहीं है। इस प्रकार का भेदज्ञान होता है। किन्तु जब कालविशेष से उसमें अर्थान्तरभाव गहोत नहीं होता अर्थात् वह तत्कारण व्यक्तिरूप से अविविक्त दीखती है तब वह कार्य को उत्पादिका होती है।
जन विद्वानों ने नयायिक आदि को भी सामग्री का उक्त स्वरूप स्वीकार करने के लिये विषश होने का प्रतिपादन किया है। उनका कहना है कि यायिक मानस प्रत्यक्षादि में चाक्षुषसामग्री प्रावि को प्रतिबन्धक मानते हैं किन्तु सामग्री यदि कारणसमुवायरूप होगी तो उसे 'एकविशिष्टअपरत्व' रूप से ही प्रतिबन्धकस्य मानना आवश्यक होने से विशेषणविशिष्य भाव में घिनिगमनाविरह होने के कारण गौरव होगा। किन्तु यवि सामग्री को सम्पूर्ण कारणों से भिन्न-भिन्न एक परिणामविशेषरूप माना जायगा तो उसे तत्तदव्यक्तित्वरूप से या तत्तत्कार्य सामग्रीस्व रूप से प्रतिबन्धकता मानने में लाघव होगा। अतः सामग्री को समस्त कारणों से भिन्नाभिन्न परिणामविशेषरूप मानना ही न्यायोचित है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सामग्री को कारणों से एकान्ततः भिन्न अथवा अभिन्न मानने में दोष होने पर भी भिन्नाभिन्नरूप अनेकान्त के अभ्युपगम में कोई दोष नहीं है ।