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स्या० क० टीका एवं हिन्दी यिवधन ]
बौद्धों का उत्तर है कि यह ठीक नहीं है क्योंकि विशकलित कारणों के समवधान में असामग्रीभाव होता है किन्तु उक्त निर्वचन के अनुसार उसमें भी सामग्रीत्व की आपत्ति होगा । जैसे, जिस कम से कारणों के एकत्र होने पर कार्य का उदय होता है उससे विपरीत क्रम से यदि कारणों का समवधान हो तो यह विशकलित कारणसमयधान कहा जायगा और इससे कार्य का उदय न होने से उसे सामग्री नहीं कहा जाता किन्तु सामग्री के उक्त निर्वचन के अनुसार इस प्रकार के कारणसमवधान में भी सामग्रीत्व की आपत्ति अनिवार्य होगी।
यहां स्थैर्य वावी कह सकता है कि "इस दोष के परिहार के लिये इतरकारणविशिष्ट घरम कारण हो सामग्री है, ऐसा मानने पर इतर कारण और घरमकारण के विशेषण-विशेष्यभाव में विनिगमना-विरह नहीं हो सकता क्योंकि कार्य का सामानाधिकरण्य ही चरम कारण के विशेष्य होने में विनिगमक होगा। अभिप्राय यह है कि चरम कारण कार्योत्पत्तिमद्देश में विद्यमान होकर कार्य का उत्पादक होता है। यति चरम कारण को विशेषण बना कर, इतर कारण को विशेष्य बनाया जाय तो इतर कारण कार्योत्पत्तिमद्देश में वृत्ति न होने से उसमें कार्योत्पादकता को सिद्धि नहीं होगी।"
किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि इतर कारण भी किसी सम्बन्ध से कार्योत्पत्तिमद्देश में वृत्ति होते हैं। यदि सर्वथा कार्योत्पत्तिमद्देश में अत्ति होंगे तो चरमकारण को विशेष्य मानने पर भी उसमें इतर कारणों का सामानाधिकरणण्य रूप वैशिष्टच नहीं हो सकेगा। यदि यह कहा जाय कि'केवल चरम कारण ही सामग्नी है तो यह भी ठीक नहीं हो सकता क्योंकि-घटादि के चरमकारणीभूत कपालसंयोग आदि को केवल संगयोत्व रुप सामग्री नहीं माना जा सकता क्योंकि-कपालादि के व्युत्क्रमसंयोग से भी घटादि को उत्पत्ति का प्रसंग होगा और यदि चरमसंयोगत्वरूप से उसको सामग्री कहा जायगा तो चरमत्व अव्याहतपूर्वत्व सम्बन्ध से फलविशिष्टोत्पत्तिकत्व से भिन्न नहीं हो सकता -इस स्थिति में अव्याहतपूर्वत्य सम्बन्ध से फलविशिष्टोत्पत्तिकत्व की अपेक्षा अव्यवहितपूर्वस्व सम्बन्धेन फलवस्व को ही सामग्रो मावना उचित होगा, फलतः अव्यवहितपूर्वत्व सम्बन्ध से जब फल विशिष्ट ही सामग्री कहो जायगी तो सामग्री के अभाव से कार्य को अनाव होता है'-यह व्यवहार असंगत हो जायगा क्योंकि प्रध्यवहित पूर्वस्व सम्बन्ध से फलविशिष्ट का प्रभाव फलाभाव को प्राधीन होगा, अत: अध्यवहितपूर्वत्व सम्बन्ध से फलविशिष्ट के अभाव से कार्य का प्रभाव हैअर्थतः इसका स्वरूप यह होगा कि 'पल के अभाव से हो फलका अभाव होता है और इसमें प्रात्माश्रय दोष स्पष्ट है । इसोप्रकार सामग्रोभेद से कार्यभेव होता है इस व्यवहार का भी पर्यवसित रूप 'कार्य भेद से कार्य भेद होता है। यही प्राप्त होता है। इसमें भी प्रात्माश्य स्पष्ट है। अतः सामग्री के निर्वचन का उक्त सम्पूर्ण प्रयास अकिश्चित्कर है।
यदि यह कहा जाय कि-"प्रागभाव से अतिरिक्त किसी कार्य के जितने कादाचित यानी कालिकअध्याप्यवृत्ति कारण होते हैं उन सभी कारणों के प्रागभाव का अधिकरण जो क्षण वही कार्य की सामग्री है। ऐसा क्षण कार्योत्पत्ति का अव्यवहित पूर्व क्षरण ही हो सकता है क्योंकि उस समय तक कादाचिस्क सभी कारणों की उत्पत्ति हो जाने से वह क्षण काशचिक यादकारणों के प्रापभाष का अनधिकरण होता है और कार्य की उत्पत्ति तब तक नहीं होती है। अतः वह क्षण कार्य के प्रागभाव का अधिकरण भी है । इस प्रकार इस क्षण को सामग्री मानने पर दोष नहीं हो सकता" तो इस प्रसंग में यह ध्यान देना आवश्यक है कि उक्त क्षणरूप सामग्री कार्य का जनक नहीं होती क्योंकि कार्य का