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स्या० क० टोका एवं हिन्धी विवेचन ]
विशिष्टं कटप्समित्याशय' इति चेत् ? नन्वेवं सत्येव क्लुप्तेऽप्यर्थ-जनयन्ति = जनयेयुस्तान्य
र्थोपलम्भम्, तत्साहित्यघटितस्वभावत्वात्, अन्यथाऽतत्स्वभावता-सहार्थेन तञ्जननस्वभावताविलयः स्यादित्यर्थः ॥ ५॥
[ अनुपलब्धि की उपपत्ति का निष्फल आयास ] विज्ञानवादी बौद्ध को ओर से यदि यह कहा जाय कि-"जो प्रत्यय प्रतियोगी उपलम्भ की सामग्री में प्रविष्ट नहीं है उनमें प्रतियोगीरूप अर्थ के साथ प्रतियोगी उपलम्भ के जनन का स्वभाव है और यह स्वभाव वास्तव नहीं किन्तु कल्पित है। आशय यह है कि जो जिस कार्य को सामग्री में प्रविष्ट होता है उसमें उस कार्य के जनन का वास्तवस्वभाव होता है और जो जिस कार्य को सामग्री में प्रविष्ट नहीं होता किन्तु सामग्री प्रविष्ट के सदृश होता है उसमें उस कार्य के जनन का कल्पित स्वभाव होता है। यह स्वभाव लोकव्यवहार के अनुरोध से माना जाता है । जैसे, कुशूलस्थ बीज अङ्कर को सामग्री में प्रविष्ट नहीं होता किन्तु लोग उसमें भी अंतरजनकत्व का व्यवहार करता है । अंकुरार्थों को उसके रक्षण और ग्रहण में प्रवृत्ति होती है । कुशूलस्थ बीज में अङ्करजनन के इस कल्पित स्वभाव को मानने पर उससे अंकुरोत्पत्ति का आपादान नहीं किया जा सकता, क्योंकि अङ्करोत्पादकता को याचि अडकूर जना के तारत तस्वभाव में है जो कुशूलगत बीज़ में न होकर प्रकर सामग्री में प्रविष्ट क्षेत्रगत बीज में होता है। तो इस प्रकार अर्थोपलम्भ सामग्री में अप्रविष्ट प्रत्ययों में अर्थोपलम्भजनन का कल्पितस्वभाव मानने से वे भी अर्थोपलम्भ के हेतु गिने जाते हैं। अतः उन में अपिलम्भजनक समनन्तर प्रत्ययभिन्नत्वरूप से अभिहित कर उनके साकल्य को योग्यता कहा जा सकता है। तथा उस योग्यता के काल में अर्थ की अनुपलब्धि भी हो सकती है क्योंकि उनमें अर्थसहित अपिलम्सजननस्वभावता है। अतः अर्थसहितत्व की अभावदशा में अर्थ की अनुपलब्धि युक्तिसंगत है। अर्कोपलम्भ भी सामग्री में अप्रविष्ट प्रत्ययों में अर्थोपलम्भजनन के कल्पित स्वभाव को मानने में न्यायवादी की भी सम्मति प्राप्त है। उन्होंने कहा है कि 'उपलम्भक अन्य प्रत्ययों के रहने पर, जो स्वभाव विद्यमान होने पर प्रत्यक्ष का विषय बन जाता है वह स्वभावविशेष पर मत में कल्पित अर्थस्वरूप है।' न्यायवादी की यह उक्ति स्पष्ट रूप से उपलम्भ के ऐसे प्रत्ययों का संकेत करती है जो उपलम्भ को सामग्री में प्रविष्ट नहीं है, क्योंकि उन्होंने अर्थ के साहित्य में उन प्रत्ययों में अर्थोपलम्भजनकता का कथन किया है। इस प्रकार अर्थ में अर्थोपलम्भअननस्वभावता क्लप्त होने से अर्थ के साहित्य से अन्य प्रत्ययों में भी अर्थोपलम्भजनन का विशिष्टयानी वास्तवस्वभाव से भिन्न कल्पित स्वभावसिद्ध होता है।"
इस पर ग्रन्थकार का कहना है कि विज्ञानवादी बौद्ध का यदि अर्थोपलम्भजनन के कल्पित स्वभाव के सम्बन्ध में यही आशय हो तो अर्थोपलम्भ के अन्य प्रत्ययों से अर्थसहित अर्थोपलम्भ की आपत्ति होगी । क्योंकि उनका अर्थोक्लम्भजनन स्वभाव अर्थसहितस्य घटित. अर्थात् उन में अर्थ सहित अर्थोपलम्भजनन का स्वभाव है। यदि वे अर्थसहित प्रर्थोपलम्भ के जनक न होंगे तो उन में अर्थसहित अर्थोपलम्भजनन के स्वभाव की हानि होगी, क्योंकि तब उनके उक्त स्वभाव में कोई प्रमाण न होगा ॥५॥