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[ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ५ श्लो० ५
योगी का भी सद्भाव होता तो उसकी उपलब्धि अवश्य होती । अतः प्रतीयोगी की इस प्रकार की अनुपलब्धि से उसके अभाव की सिद्धि होती है। किन्तु, विज्ञानवादी के मत में उक्त योग्यता के रहने पर प्रतियोगी को अनुपलब्धि नहीं उपपन्न हो सकती, क्योंकि विज्ञानवादी के मत में वे ही कारण अथवा उनके स्थान में स्वीकृत अन्य प्रत्यय ही अगर बाह्यार्थस्वरूप प्रतियोगी के उपलब्ध कराने के स्वभाव वाले स्वीकार्य हैं तब बाह्यार्थ असिद्ध है ऐसा वे फैले कह सकते हैं ? अन्यथा प्रतियोगी उपलम्भ के समग्र कारण वहां विद्यमान है तब उनके रहने पर प्रतियोगी की अनुपलब्धि का होना सङ्गत नहीं है। क्योंकि तत् की अनुपलब्धि है और तदुपलम्भ के जनक समग्र हेतुओं का सन्निधान है---इन दोनों में विरोध है ।
यदि विज्ञानवादी की ओर से यह कहा जाय कि- 'उक्त स्थल में प्रतियोगी और प्रतियोगीव्याप्य से भिन्न ही प्रतियोगी प्रत्यक्ष के कारणों का सविधान है - प्रतियोगी प्रत्यक्ष के समग्र कारणों का सविधान नहीं है, अतः उस काल में प्रतियोगी की अनुपलब्धि सम्भव है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रतियोगी उपलम्भक हेतुओं में प्रतियोगी और प्रतियोगीव्याप्य से इतरत्व का निवेश विज्ञानवादी के लिए शक्य नहीं है, क्योंकि उस निवेश से प्रतियोगीरूप बाह्यार्थ की सिद्धि एवं उसमें प्रत्यक्षजनकता को आपत्ति होती है। यदि प्रतियोगी प्रतियोगीव्याप्येतरत्व स्थान में प्रतियोगी उपलम्भक समनन्तरप्रत्ययेतरत्व कर निवेश किया जाय तो वह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि बौद्धमत में स्वरूपयोग्य में कारणता नहीं मानी जाती किन्तु फलोपधायक में ही कारणता होती है । श्रतः प्रतियोगी उपलम्भक सामग्री में जो प्रविष्ट है यही कारण होगा और वही समनन्तर प्रत्यय रूप होगा अथवा उस काल में समनन्तर प्रत्यय का सन्निधान भी अपरिहार्य है । अतः प्रतियोग्युपलम्भक समनन्तर प्रत्ययेतरत्व कर के समनन्तर प्रत्यय के समानकालिक प्रत्ययों का निवेश किया जायगा तो वे प्रत्यय प्रतियोगी उपलम्भक सामग्री के घटक न होने से उन में प्रतियोग्युपलम्भकारणता नहीं रहेगी अन्यथा प्रतियोग्युपलम्भक समनन्तर प्रत्ययेतरत्व ( प्रत्ययfrace) का निवेश निरर्थक होगा और उन्हें यदि कारण माना जायगा तो सामग्री में अननुप्रविष्ट पदार्थ में कारणता की प्रसक्ति होने से श्रपसिद्धान्त होगा ॥ ४ ॥
पांचवी कारिका में प्रतियोगी उपलम्भ की सामग्री में अप्रविष्ट प्रत्ययों में प्रतियोगीउपलम्भ-जनन का स्वभाव कल्पित हैं, वास्तव नहीं, इसलिए प्रपसिद्धान्त नहीं होगा - इस मान्यता को प्रस्तुत कर उसका निराकरण किया गया है
'कल्पितं तत्र तज्जननस्वभावस्वं न तु वास्तवमिति जापसिद्धान्तः' इत्यभिप्रेत्य शङ्कापरिहारा वाह
मूलम् सहार्थेन तज्जननस्वभाषानीति चेन्न । जनयन्त्येव सत्येवमन्यथाऽ तत्स्वभावला ॥२॥
सहार्थेन वरपरिकल्पितेन, तञ्जननस्वभावानि अर्थोपलम्भजननस्वभावानिं प्रत्ययान्तराणि यदाह न्यायवादी- "स्वभावविशेषञ्च यः स्वभावः सरस्वत्येषूपलम्भप्रत्ययेषु सन् प्रत्यक्ष एव भवति" इति । तथाचार्थस्य क्लृप्तत्वात् सत्साहित्येनाथ पलम्भजननस्वभावत्वं
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