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[ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ५ इलो० ६-७
छुट्टी कारिका में, अर्थोपलम्भसामग्री में प्रविष्ट प्रत्ययों को अर्थोपलम्भ के प्रति स्वरूपयोग्य मान कर भी अर्थोपलम्भजनन के कल्पित स्वभाव का अभ्युपगम नहीं हो सकता इस तथ्य का प्रतिपादन किया गया है
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'सति बाह्य ऽर्थे कदाचित् तेन सह तदुपलम्भं जनयेयुरिति योग्यताय तज्जननस्वभाव कल्प्यत' इत्याशये वाह
गलम् — योग्यतामणि तत्स्वभावत्वकल्पना | इन्तैवमपि सिद्धोऽर्थः कदाचिदुपलब्धिः ॥६॥
अथ तेषां प्रत्ययान्तराणां योग्यतामधिकृत्य तत्स्वभावस्वकल्पना-यदाऽर्थो भवति तदा तदुपलम्भं जनयन्ति, हन्त ! एवमपि अर्थः = बाह्यो घटादिः सिद्धः कदाचित् = यस्मिन् कस्मिंश्चित् काले उपलब्धितः = उपलम्भसंभवात् ॥६॥
| बाह्यार्थ के उपलम्भ की आपत्ति ]
'प्रर्थोपलम्भ के अन्य प्रत्यय बाह्यार्थ का सन्निधान होने पर बाह्यार्थ उपलम्भ के जनक होते है' इस प्रकार अन्य प्रत्ययों में बाह्यार्थीपलम्भजनन के स्वभाव की कल्पना हो सकती है। ऐसा मानने पर पूर्वोक्त आपत्ति भी नहीं हो सकती क्योंकि उन में इस प्रकार के स्वभाव की कल्पना से उनके जनन स्वभाव में अर्थसहितत्व का प्रवेश नहीं होता। इस पर ग्रन्थकार का वेदपूर्वक यह कहना है कि ऐसी कल्पना से कभी न कभी बाह्यार्थ की उपलब्धि अवश्य सिद्ध होती है अतः उस उपलम्भ से बाह्यार्थ का सद्भाव प्रसक्त होता है जो विज्ञानवादी को स्वीकार्य नहीं है ॥६॥
aa after में विज्ञानवादी बौद्ध के इस कथन का कि 'जिन प्रत्ययों से बाह्यार्थ की उपलब्धि कभी नहीं होती वे भी बाह्यार्थ उपलम्भ के प्रति स्वरूप योग्य होते हैं अतः उन में बाह्यार्थोपलम्भ के जनन का कल्पित स्वभाव माना जा सकता है'-निराकरण किया गया है-
विपक्षे बाधकमाह
मूलम् - अन्यथा योग्यता तेषां कथं युक्त्योपपद्यते ? | न हि लोकेऽश्वमाषादेः सिद्धा पक्स्यादियोग्यता ॥ ७॥
अन्यथा = कदापि तदुपलम्भाऽजनने, कथं तेषाम् = अभिमतप्रत्ययान्तराणाम् योग्यता: = बाह्य र्थोपलम्भजननयोग्यता, युक्त्या = न्यायेन उपपद्यते ? कारणान्तरवैकल्यप्रयुक्त कार्याभावत्वस्यैव कारणान्तरे योग्यताया लोके व्यवहियमाणत्वात् । एतदेव समर्थयति न हि लोके = व्यवहारिणि लोके अश्वमाषादेः = कंकदुकादेः कदापि पक्त्याद्यजनकस्य पक्त्यादियोग्यता सिद्धेति ॥ ७ ॥
[ बाह्यार्थानुपलम्भक प्रत्ययों में योग्यता दुर्घट है ]
जिन प्रत्ययों से कभी भी बाह्यार्थ का उपलम्भ नहीं होता उन में बाह्यार्योपलम्भ के जनन