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[ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ६ श्लो०१७-१
होता है अन्य में नहीं होता। किन्तु ग्रन्थकार के अनुसार बौद्ध का यह आक्षेप युक्त नहीं है क्योंकि बौद्ध के मतानुसार संक्लेश ही युक्तिसिद्ध नहीं होता ।। १६ ।।
१७वीं कारिका में संक्लेश के युक्तिसिद्ध न होने को स्पष्ट किया गया हैकथम् १ इत्याह
मूलम् — संक्लेशो यद् गुणोत्पादः स चाक्लिष्टान्न केवलम् । न चान्यसचिवस्यापि तस्यानतिशयात्तनः ॥ १७ ॥
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यद् - यस्मात् संश्लेशो गुणोत्पादः, स च केवलात् = अन्य सहकारिरहितात्, अक्लिष्टादुपादानात् न भवति, ततोऽयंक्लिष्टचित्तस्यैवोत्पादात् । न चान्यसचिवस्यापि हिंस्यादिसहकारिसमवहितस्यापि तस्य उपादानस्य अनतिशयात् ततः अन्य सहकारिणः सकाशात् मंगलेश इति योगः, अनतिशयस्य समानाऽसमानकालकरणायोगात् ॥ १७ ॥
[ संक्लेश बौद्धमत में सिद्ध नहीं है ]
बौद्ध मत में गुण यानी 'fresट चित्त' का उत्पाद ही संक्लेश है और वह, अन्य सहकारी के प्रभाव में, केवल अक्लिष्ट चित्त रूप उपादान से नहीं सम्पन्न हो सकता। क्योंकि अन्य सहकारी न रहने पर तो वह प्रसंविलष्ट चित्त को ही उत्पन्न करता है। अगर कहें - हिंस्यादि अन्य सहकारी के सहयोग पर सो अक्लिष्टचित्त क्लिष्टचित्त का उत्पादक हो सकता है न ?' तो यह भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि आपके मत में सहकारी क्लिष्टचित्त में कोई अतिशय नहीं उत्पन्न होता । जब सहकारी के समवधान असमवधान दोनों दशा में वह सम्पन्न रूप से अतिशयशून्य होता है तब सहकारी के समवधान काल में उससे पिलष्टचित्त की उत्पत्ति और सहकारी के असमवधान काल में प्रविष्ट चित्त की उत्पत्ति मानना युक्तिसंगत नहीं हो सकता ।। १७ ॥
१० वीं कारिका में इस सम्बन्ध में बौद्ध के एक दूसरे अभिप्राय को शंका रूप में प्रस्तुत कर उसका परिहार किया गया है
पराशयमाशङ्क्य परिहरति-—
मूलम् - तं प्राप्य तत्स्वभावत्वात्ततः स इति चेन्ननु । नाशहेतुमवाप्यचं नाशपक्षेऽपि न क्षतिः ॥ १८॥
'तं = हिस्यादिकं प्राप्य तत्स्वभावत्वात् - मंक्लेशजननस्वभावत्वात् तदुपादानस्य ततः सहकारिणः सः= :- संक्लेश' इति चेत् ? नन्वेवं नाशहेतुं मुन्नरादिकम् अवाप्य एवं स्वभावकल्पनायां नाशपक्षेऽपि न क्षतिःन्न विरोधः, तस्यापि तं प्राप्य स्वनिवृत्तिस्वभावस्वात् । न च 'वस्तुमात्रजनका एवं नाशजनका इति नाशजनने न सहकार्य नुप्रवेशापेक्षा, अक्लेशमात्रजनका एव च न संक्लेशजनका इति संक्लेशे जननीये तदुपादान क्षणानां तदपेक्षा, शिशपाक्षणानामित्र चलशिशपायां जननीयायां नोदनाद्यपेक्षे 'ति वाच्यम्। लुब्धक- शिशपा