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स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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'हन्म्येनम्" इति संक्लेशाद् हेतोः हिंसकः प्रकल्प्यते लुब्धकादिक्षणः, क्लिष्टविज्ञानक्षणस्यैव क्लिष्टकमक्षणहेतुत्वात् , 'मृगमव्यापादयनपि 'मृगं हन्मि' इति संक्लेशपरिणतः पापेन वध्यते, यतमानश्च विचरभनाभोगाद् नमपि कथंचिल्लघुप्राणिनं न पापेन बध्यते स्त्रसंकिलर' इत्यन्षय-व्यतिरेकदर्शनात् । न चैवं व्यापादिताऽव्यापादितमृगयोः संक्लिष्टक्षणयोरशिशिष्टकर्मार्जनप्रसङ्गः, तसामर्थ्यविशेषेण कार्यविशेषात् । हिंसकलव्यवहारस्तु तथाविधविकल्परूपः सांघृतं नाशमादायैवेति न दोष इति चेन् ? नैतदेवम्-यस्मात् त्वनीतितः त्वदभ्युपगतन्यायात् , अयमेव-संक्लेश एव न युज्यते ॥ १६ ।।
[हिंसा के परिणाम से हिंसकत्व की प्राप्ति बौद्ध मत में अघटित ] . जैन के उक्त कथन पर बौद्ध का आक्षेप यह है कि हिंसकता का मूल प्राणिवध नहीं है। अपितु संक्लेश यानी प्राणिवध करने का संकल्प है। शिकारी को शूफरवध का संकल्प होता है । इसलिये शूकरक्षण से विलक्षण शशक्षण का जनक होने पर शिकारी शूकर का हिंसक कहा जाता है किन्तु शूकर को व्याधि का शिकार होते समय स्वयं स्ववध का संकल्प नहीं होता । अतः अपने से विलक्षण शशक्षण का जनक होने पर भी वह आमहिंसक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि विलष्टविज्ञानक्षण ही बिलष्ट कर्मक्षण का हेतु होता है । यतः इसप्रकार का अन्वय-व्यतिरेक देखा जाता है कि मगध करने के संकल्पात्मक संक्लेश से युक्त मनुष्य मम का प्राणघातक न होने पर भी पाप से बद्ध होता है किन्तु असंक्लिष्ट यानी उक्त संक्लेश से शून्य व्यक्ति जीवरक्षा में प्रयत्नशील होकर भ्रमण करता हुआ यदि अति सूक्ष्मता के कारण किसी लघु प्राणि को न देख पाने पर यदि घातक भी हो जाता है तो वह पाप से बद्ध नहीं होता।
यदि इसके विरोध में यह कहा जाय कि-'संक्लेश को ही हिंसकता का मूल मानने पर मगवध के संक्लेशयुक्त दो व्यक्तिओं में एक मग का वध हुआ और दूसरे से मग का वध न हो सका तब भी संवलेश के कारण उनमें समान रूप से पापबन्ध को प्रसक्ति होगी-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि
शको तीवता और मन्वताप विशेष से उन व्यक्तियों को पापबाधरूप कार्य में विशेष होने से उक्त दोष की प्रसक्ति नहीं हो सकती। आशय यह है कि यद्यपि भगवध के संक्लेश से युक्त मृग घातक और मृग के अघातक दोनों ही व्यक्तिओं को पापबन्ध होता है किन्तु जिसको मगवध का अवसर मील जाता है उसको संपलेश तीन होने से उसे तीवपाप का बन्ध होता है और जिसको मुगवध का अवसर नहीं मीलता उसका संक्लेश पूर्व की अपेक्षा मन्द होने से उसे मन्द पापबन्ध होता है। इस पर यह प्रश्न हो सकता है कि-'वध का संकल्परूप संक्लेश ही हिंसकता का मूल है तो उक्त संक्लेश से युक्त मगघाती और मग के अघाती दोनों व्यक्ति में हिंसकरष का व्यवहार क्यों नहीं होता? केवल मगघाती में ही हिंसकत्व का व्यवहार क्यों होता है ?'-तो उसका उत्तर यह है कि हिंसकत्व व्यवहार का मूल न तो प्राणि का स्वतः होने वाला नाश है, और न प्राणिवध का संक्लेश मात्र है, किन्तु प्राणि का सांवत नाश उक्त व्यवहार का मूल है । वह नाश संक्लेशमात्र से नहीं होता फिन्तु संक्लेश की सफलता होने पर होता है। अतः मगघाती व्यक्ति में ही हिंसकत्व का व्यवहार