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[ शास्त्रमा स्त०६ श्लो० १६
[ शंकरारि गर्दिकतनी नौद्धगरा में आपत्ति ] बौद्ध का आशय यह है कि-"शूकरक्षण सन्तान के अन्तर्गत अन्त्यशूफरक्षण को निवत्ति होने पर शशक्षणसन्तान का आरम्भ होता है। अन्त्यशूकरक्षण का निवर्तक यह शिकारी क्षण होता है जो शशक्षणसन्तान के प्रारम्भकाल में संनिहित होता है। इस प्रकार शिकारी क्षण प्रथम शशक्षण का जनक कहा जाता है और शशक्षणसन्तान शूफरक्षणसन्तान को नियतिरूप होने से शिकारी को शूकर का हिंसक कहा जाता है। शशक्षण के आरम्भकाल में संनिहितशिकारीक्षण में जो हिसात्मक कर्म को वासना उत्पन्न होती है उसीसे शिकारी के अग्रिम क्षणों में उस कर्म के परिणाम भूत दुखदोगत्यादि फल का उपभोग होता है। इस प्रकार भावमात्र के क्षणिकत्वपक्ष में भी हिंसक और उसे हिसा के फलोपभोग की उपपत्ति हो सकती है। प्रतः भावमात्र को क्षणिक और नाश को निहतुक मानने में कोई बाधा नहीं हो सकती।"-किन्तु ग्रन्थकार के कथनानुसार बौद्ध का यह मत संगत नहीं हो सकता । क्योंकि शूकरक्षण से विलक्षण क्षण का जनक होने से जसे शिकारी हिंसक होता है उसी प्रकार हिस्थ = मरने वाला शूकरक्षण भी अपना हिसक हो जायगा क्योंकि शिकारीक्षण के समान वह स्वयं भी अन्त्यशूकरक्षण की विलक्षण शशक्षण का उत्पादक है। शिकारीक्षण और शूकरक्षण को जनकता में कोई अन्तर नहीं है।
[निमित्त कारणरूप में जनकता का परिष्कार व्यर्थ है ] इसके उत्तर में बौद्ध को अोर से यदि यह कहा जाय कि "निमित्तकारण के रूप में जो जिस प्राणि के विसदृश क्षण का जनक होता है वह उस प्राणि का हिसक होता है। शिकारी तो शूकर प्राणि से विलक्षण शशक्षण का निमित्तकारण होने से शूकर का हिंसक होता है। किन्तु शूकरक्षण उपादानकारणरूप से शशक्षण का कारण होता है अतः उसमें शूकर के हिंसक होने का दोष नहीं है'तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रात्महिमा के संग्रहानुरोध से हिसकता के लक्षण में निमित्त कारणरूप से जनकता का प्रवेश नहीं किया जा सकता क्योंकि कोई प्राणि जब आत्महत्या करता है तो वह अपने से विसदृश क्षण का उपादान कारण ही होता है निमिसकारण नहीं होता किन्तु वह आत्महिंसक तो कहा ही जाता है। यदि इस पर बौद्ध को ओर से यह कहा जाय कि-निमित्त कारणरूप से जनकताविशेष का निवेश हिंसफ सामान्य के लक्षण में न कर परहिसक के ही लक्षण में करने से यह दोष नहीं हो सकता'-तो इस उत्तर से भी बौद्ध का त्राण नहीं हो सकता क्योंकि शिकारी से
सास्थल में शकरक्षण में प्रात्मसिकता की आपत्ति वत्रलेप के समान अपरिहार्य है, क्योंकि निमित्तकारणरूप से जनकता का निवेश परहिसक लक्षण में ही है-श्रामहिंसक के लक्षण में नहीं है। अतः शूकरक्षण विलक्षण शशक्षण का उपादानकारणविधया अनक होने पर भी शूकर में स्वात्महिंसकत्व को प्रसक्ति निर्वाध है ॥१५॥
१६वीं कारिका में जैन के उक्त कथन पर बौद्ध की प्रोर से आक्षेप और उसके जैन सम्मत परिहार का उपदर्शन किया गया है--
इहैवाक्षेप- परिहाराबाहमूलम् हन्म्येनमिति संक्लेशाहिंसकश्चेत्प्रकल्प्यते ।
नैव त्वन्नोनितो यस्मादयमेव न युज्यते ॥१६॥