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त्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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मात्रजनकानामेवाऽसंक्लेशा-ऽचलाशशपाजनकल्लामावेन तत्रापि सहकार्यन्तरापेक्षावश्यकत्यात, आर्थिकत्वस्याऽविनिगमात् , सहकारिप्रसूतविशेषस्यापि क्षणपरम्परासंक्रान्तस्याऽपरित्याग विशेपान्तरानुपादानप्रसङ्गात्, तपरित्यागश्चान्यत एव इति सिद्धं नाशहेतुना इत्याम्ररिततत्त्वमेतत् ॥ १८ ॥
[ शुकरादि के संनिधान में संक्लेशजननस्वभावता अन्यत्र समाज ]
बौद्ध का कहना है कि... 'अक्लिष्ट चित्त हिस्यादि सहकारी को प्राप्त कर क्लिष्टचित्तजनन स्वभाव हो जाता है। इस प्रकार सहकारी के संनिधान में संक्लेश का जन्म माना जा सकता है।'किंतु इसके प्रतिबन्बीरूप में यह भी कह सकते हैं कि-नाश पक्ष में भी यह मानने में कोई विरोध नहीं है कि घदादिभाष मुद्गराविरूप नाश हेतु को प्राप्त कर घटनिवृत्तिस्व माव हो जाता है। याद बौद्ध की ओर से यह शंका को जाय कि-वस्तुमात्र का उत्पादक ही नाशोत्पादक है अत एवं नाश को उत्पत्ति में सहकारी की अपेक्षा नहीं होती। किन्तु संक्लेश के जनन में उसके उपादानभूतचित्त क्षण को सहकारी की अपेक्षा इसलिये होती है कि प्रसंक्लेश मात्र का जनक (चित्तक्षण) संक्लेश का जनक नहीं होता। यह शिशपा के दृष्टान्त से भलीभांति समझा जा सकता है। जैसे शिशपाक्षण को सकम्प शिशपाक्षण उत्पन्न करने में चलवायु के नोदनादि संयोग (शब्दाजनक संयोग) की अपेक्षा होतो है क्योंकि शिशपाक्षणमात्र चशिशपा का जनक नहीं होता, उसी प्रकार असंक्लेशमात्र का जनका (चित्त संक्लेश का जनक नहीं होता। प्रतः संक्लेश को उत्पन्न करने में सरकारी की अक्ष, चित्त है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इससे तो यह सिद्ध होता है कि-लुब्धकसंक्लिष्टचित्त मात्र का जनक असंक्लेश-असंक्लिष्टचित्त का जनक नहीं होता और शिशपामात्र का जनक अचशिशपा का जनक नहीं होता अतः असंक्लिष्ट चित्त और अचलशिशपा के जनन में भी संक्लिष्टचित्त के जनक को और शिशपामात्र के जनक को अन्य सहकारी की अपेक्षा होती है। और जब संक्लिष्टचित्त को असंक्लिष्टचित्त के जनन में सहकारी की अपेक्षा होगी तो असंक्लिष्टचित्त संक्लेशनिवत्त्यात्मक चित्त रूप होने से नाश के जनन में भी सहकारी की अपेक्षा सिद्ध हो जायगी, क्योंकि संक्लेशनिवत्ति संबलेशनाशरूप है। इसी प्रकार शिशपामात्र जनक को अचलशिपापा के जनन में यदि सहकारी की अपेक्षा होगी तो अचलशिंशपा चलननिवृत्त्यात्मकशिशपारूप होने से चलननिवृत्तिस्य नाश के जनन में भी सहकारी की अपेक्षा सिद्ध होगी।
[आर्थिकत्व में विनिगमनाविरह ] यवि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि-'संघलेशनिवत्तिात्मक चित्त और चलननिवस्तिआस्मक शिशपा के प्रति कोई अतिरिक्त कारण नहीं होता अपितु चित्त के कारण एवं संक्लेशकारण का अभाव ये दोनों का संनिधान होने पर उत्पन्न होने वाला चित्त अर्थतः विना कोई अतिरिक्त कारण के हो संक्लेश निवृत्ति आत्मा हो जाता है। एवं शिशपामात्र के जनक और चलनकारणाभाव ये दोनों का युगपत्संनिधान होने पर उत्पन्न होने वाली शिशपा अर्थतः चलननिवृत्यात्मक हो जाती है । अतः उक्त रीति से नाश की उत्पत्ति में सहकारी की अपेक्षा नहीं सिद्ध होती।"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि (१) चित्त को संक्लेशनिवृस्थात्मकता और शिशपा की घलन-निवृत्त्यात्मकता आथिक यानी अतिरिक्त कारण निरपेक्ष है और (२) चित्त की संक्लिष्टता नौर शिशपा की चलना.