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स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
सकल प्रतियोगी-उपलम्भकों का समवधान हो । यही बात प्रकृतयोग्यता के निधन से भी प्राप्त होती है क्योंकि प्रतियोगी-प्रतियोगोइन्द्रियसंनिकर्षविरह से अतिरिक्त जो प्रतियोग्युपसम्भक का अभाव, प्रतियोगी के अनुपलम्भ में तत्प्रयुक्तरव भी उसो प्रधिकरण में होगा जहाँ प्रतियोगी के अन्य सम्पूर्ण उपलम्भक विद्यमान होंगे। अतः दोनों योग्यता में केवल शारिक भेद है तात्त्विक भेद कुछ भी नहीं रहता।
'प्रतियोगिसच्चप्रसञ्जनप्रसञ्जितप्रतियोग्युपलम्भाभावः' इति चिन्तामणिकारीया योग्यता, प्रतियोगिसत्यव्यापकोपलम्भविष्यप्रतियोगिकाभावत्वं योग्यतावच्छेदकमिति फलितम् । नत्यापादनात्मकज्ञानमप्युफ्युज्यते, तदभावेऽप्यभावप्रत्यक्षात् । तत्र शुद्ध प्रतियोगिसचं ध्यान्यम् ? किञ्चिदवच्छिन्नं वा । नाद्यः, तत्सत्वेऽपि कारणान्तराभावादनुपलम्भेन व्यभिचारात् । न द्वितीयः, जलपरमाणी पृथिवीवाभाव प्रत्यक्षतापातात् , तत्रापि महत्त्वादिविशिष्टपृथिधीत्वेनोपलम्भापादनसंभशत् । न च यक्षाऽवृत्तिविशेषणानवच्छिन्नयासवोक्तौ निस्तारः, तथापि गन्धवदगुभिन्नत्ये सति पृथिवीत्वेन तत्र तदापादनसंभवात् ।
[चिन्तमणिकार विरचित योग्यता लक्षण की समीक्षा ] तस्वचिन्तामणिकार का मत यह है कि प्रतियोगी की सत्ता-प्रतियोगितावरछेदक सम्बन्ध से प्रतियोगी के प्रसञ्जन आरोप से जन्य प्रसञ्जन-आरोप का विषयभूत जो प्रतियोग्युपलम्भ, उसका अभाव योग्यता है । जनका प्राशय यह है कि जिस अधिकरण में जिस प्रभाष के प्रतियोगी का प्रतियोगितावच्छेदकता संबन्ध से प्रारोप होने पर उसके प्रतियोगीउपलम्भ का आरोप हो सकता है, उस प्रधिकरण में यह प्रभाव प्रत्यक्षयोग्य होता है। जैसे आलोकसंयुक्त महत्त्व-उद्भूतरूपविशिष्ट मूतलादि में घट की असत्त्व दशा में इसप्रकार का आरोप हो सकता है कि 'यदि अत्र घटः स्यात् हि उपलभ्येल'.-अथवा 'योष देशः घटवान् स्यात् हि घटबत्तयोपलभ्येत, विशेष्यता संबन्धेन घटोपलम्भवान स्यात'-अर्थात मालोकावियक्त भतल में यदि घट हो तो उपलब्ध होना चाहिये, अथवा आलोकादियुक्त भूतल में यदि घटधान हो तो घटोपलम्भ का विशेष्य हो अर्थात् 'अत्र भूतले घटः' अथवा 'इदं भूतकं घटवत्' इस प्रकार का भूतलविशेष्यक उपलाभ हो। अत: प्रालोकादियुक्त मूतल में घटाभाव प्रत्यक्षयोग्य होता है और घटाभाव इन्द्रियसंनिकृष्ट होने पर उसका प्रत्यक्ष भी होता है।
[ लक्षणांश में उपलम्भापादन निवेश की व्यर्थता] व्याख्याकार ने इस योग्यता के निर्वचन का फलितार्थ यह बताया है कि जिस अभाव का प्रतियोगी प्रतियोगीसता के व्यापक उपलम्भ का विषय हो उसका अभाव योग्य है । तादृश अभावस्व ही योग्यतावच्छेवक है। इस फलितार्थ को उपादेयता के समर्थन में व्याख्याकार ने यह कारण बताया है कि प्रतियोगीसत्ता के आरोप से होने वाले प्रतियोग्युपलम्भ के प्रारोप को अभाव प्रत्यक्ष में कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि उक्त आरोप के बिना भी अभाव का प्रत्यक्ष होता है, अतः प्रभाव की योग्यता के नियंचन में उक्त आरोप का प्रवेश नहीं किया जा सकता। योग्यता के उस फलित स्वरूप का प्रतिपादन कर उन्होंने इस चिन्तामणिकार.कृत निर्षचन के युक्तायुक्तस्व की परीक्षा