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[ शास्त्रवा० स्त०५ श्लो०६
करने के विचार से वो प्रश्न उठाये हैं -(१) एक यह कि शुद्ध प्रतियोगीससा का योग्यता के शरीर में व्याप्यरूप से प्रवेश माना जाय ? अथया (२) कुछ विशेषणों से विशिष्ट प्रतियोगीसत्ता का? इन दोनों को असमाधेय बताते हुये कहा है कि --
शुद्धप्रतियोगीसत्ता का व्याप्य रूप से प्रवेश नहीं किया जा सकता कि प्रतियोगीमात्र की सत्ता होने पर भी उपलम्भ के अन्य कारण का प्रभाव होने पर प्रतियोगी का उपलम्म नहीं होता अतः शुद्ध प्रतियोगीसत्ता प्रतियोगीउपलम्भ की व्यभिचारिणी है।
[ परमाणु में पृथ्वीत्वाभावप्रत्यक्ष की आपत्ति ] द्वितीय पक्ष में योग्यता के गर्भ में किश्चिद्विशेषणविशिष्ट प्रतियोगीसत्त्व से व्यापकता का निवेश करने पर किश्वित्पद के प्रतियोगी से अतिरिक्त प्रतियोगीउपलम्भक यावत कारणों का ग्रहण अभिमत होने पर यद्यपि उक्तदोष नहीं है तथापि परमाणु में पृथ्वीत्वाभाव के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी क्योंकि पृथ्वीस्वोपलम्भ महत्त्वादिविशिष्टपृथ्वीत्व का व्यापक होने से पृथ्वीत्वाभाव योग्य है अतः जैसे स्यूल जल में उसका प्रत्यक्ष होता है वैसे जलपरमाणु में उसके प्रत्यक्ष की आपत्ति अनिवार्य है । यवि उसके उत्तर में यह कहा जाय कि-"योग्याभाव का भी प्रत्यक्ष उसी प्राधिकरण में होता है जिस अधिकरण में उसके प्रतियोग्युपलम्भ का पापादन हो सके । आशय यह है, प्रतियोगीआरोपजन्यप्रतियोग्युपलम्भारोप के प्रतियोगियधिकरणाभाव का अभाव अभायप्रत्यक्ष में कारण होता है। अहाँ भी जिस अभाव का प्रत्यक्ष होता है वहां उस प्रभाव के प्रतियोगी उपलम्भ का जब कभी प्रापावन होने से प्रतियोगीउपालम्भ के प्रतियोगीव्यधिकरणाभाव का प्रभाव उस समय भी रहता है जब प्रभाव प्रत्यक्ष के पूर्व उस अधिकरण में प्रतियोग्युपलम्भ का आरोप विद्यमान नहीं रहता । जल परमाणु में पृथ्वीत्वोपलम्भ का आरोप कदापि न होने से उसमें पृथ्वीत्वोपलम्भ का प्रतियोगियधिकरणाभाव ही रहता है अतः जलपरमाण में पय्यीत्वाभाव के प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अलपरमाणु में भी महत्त्वादिविशिष्ट पृथ्वीत्व दे. भारोप से पृथ्वीत्योपलम्भ का आरोप सम्भव होने के कारण पृथ्वीवोपलभ के आरोप के प्रतियोगिव्याधिकरणाभाव का अभाव विद्यमान है।
[ पक्षावृत्तिविशेषणवैशिष्ट्य का परिष्कार ! इस दोष के परिहार के लिये यदि प्रतियोगी में पक्षावृत्तिविशेषणानवच्छिन्नत्व यानी पक्षायत्ति विशेषण से अविशिष्टत्व का निवेश कर यदि इस प्रकार निर्वचन किया जाय कि 'पक्षाऽवृत्तिविशेषणशून्य यत्किश्चित् प्रतियोगिसत्त्व व्यापक उपलम्भ का जो विषय है, तत्प्रतियोगिकाभाव ही योग्य है तो उक्त आपत्ति का परिहार हो सकता है क्योंकि पध्वीत्वोपलम्भ में महत्त्वाविविशिष्ट पृथ्वोत्व को व्यापकता को लेकर जलपरमाणु में पृथ्वीत्याभाव योग्य नहीं बताया जा सकता क्योंकि जलपरमाणु में जब पृथ्वीत्वोपलम्भ का आरोप करना होगा तो उस आरोप में पक्ष यानी धर्मा जलपरमाणु होगा। महत्त्व उसमें अवसि है-अतः महस्वविशिष्टपथ्वीत्व पक्षाबसिविशेषण से शून्य नहीं है।"-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि 'गन्धवदणभिनस्व'जलपरमाणस्वरूप पक्ष में पति है-अतः उससे विशिष्ट पृथ्वीस्त्र पक्षावृत्तिविशेषणशून्य होने से पक्षावृत्ति विशेषणशून्य, एवं गन्यवदणुभिन्नत्व तथा पृथ्वीत्वातिरिक्त, महत्त्वातिरिक्त, पश्चीत्वोपलम्भ के यावत्कारणों का यत्किश्चित् शब्द से ग्रहण कर एवंभूत यत्किश्चित् विशिष्टपृथ्वीत्व से जलपरमाणु में भी पृथ्वोत्योपलम्भ का पापादान हो सकता है।