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स्या०० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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एतेन 'प्रतिभासे सति कथं शून्यता ?' इत्यपास्तम्, 'तस्यैकानेकस्वभावाश्योगतः शून्यता' इति प्रतिपादनात् । तदुक्तमाचार्येण
"भाषा धन निरूपन्ते तद्रपं नास्ति तत्वतः ।
यस्मादेकमनेक वा रूपं तेषां न विद्यते ॥श" इति । ततो बाह्यमाध्यात्मिकं वा रूपं न तत्त्वम् , स्यूल-परमाण्यादिरूपानुपपत्तेः, किन्तु सांकृतमेव । संवृतिश्च त्रिधा १. एकालोकसंवृतिमरीचिकादिषु जलभ्रान्तिरूपा, २. अपरा तत्ववृतिः सत्यनीलादिप्रतीतिरूपा, ३. अन्या चाभिसमयसंवृतियोगिप्रतियत्तिरूपा, योगिपतियत्तेरपि ग्राह्यग्राहकाकारतया प्रवृत्तः, उक्तं च भगवद्भिः- “कतमन् संवृतिसत्त्वं यावल्लोकव्यवहारः" इति ।
[ज्ञानाद्वैत मिद्धि की आपत्ति का निराकरण ] इस पर यह शंका की जाय कि-यदि विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि नीलादि का ज्ञानमात्र होता है-ज्ञान से भिन्न नीलादि को उपपत्ति नहीं होती। तो नीलादि में ज्ञान का अभेद न्यायतः प्राप्त होता है। क्योंकि यह न्याय निर्विवाद है कि जो जिस से भिन्न नहीं सिद्ध होता वह उस से अभिन्न होता है। फलतः नीलादि में ज्ञान का अभेद होने से अद्वैत ज्ञान की सत्ता सिद्ध होती है । अतः उक्त विचारों से भी माध्यमिक सम्मत शून्यता की सिद्धि नहीं हो सकती"-तो यह ठीक
है क्योंकि नील-पीताद्वात्मक चित्रज्ञान की सत्ता स्वीकारने पर चित्रात्मक जगत का भी अभ्युपगम न्यायप्राप्त होता है। क्योंकि उसमें कोई विनिगमना नहीं है कि ज्ञान तो चित्रात्मक हो और अर्थ चित्रात्मक न हो । अतः चित्रात्मक ज्ञान की भी सिद्धि न हो सकने से शून्यता का निराकरण नहीं हो सकता। जैसा कि माध्यमिक को एक कारिका में कहा गया है कि-'यदि एक अर्थ व्यक्ति में चित्रता के समान एक बुद्धि में भी चित्रता नहीं प्रमाणित होती तो मत हो। क्योंकि यदि वस्तु को यदि यही रुचिकर है कि वह चाहे ज्ञान हो चाहे अर्थ हो चित्रात्मक नहीं हो सकता तो उसमें हम क्या हस्तक्षेप कर सकते हैं !"-कहने का स्पष्ट आशय यह है कि युक्तिद्वारा न चित्रात्मक अर्थ की सिद्धि होती है और न चित्रात्मक ज्ञान की सिद्धि होती है । अतः शून्यता की सिद्धि अपरिहार्य है।
[निर्मल ज्ञानज्योति की एकमात्र सत्ता अनुभव बाह्य ] यदि इस निष्कर्ष पर यह शंका की जाय कि नीलपीताद्यात्मक ज्ञान सिद्ध न होने पर भी यह तो सिद्ध हो सकता है कि नीलपीतादि से असंक्लिष्ट निसर्गतः निर्मल ज्योतिस्वरूप ज्ञानमात्र हो पारमार्थिक तत्त्व है । फलतः इस सिद्धि से मो शून्यता का बाध हो सकता है।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार के ज्योति को कभी प्रतिपत्ति नहीं होती और जो वस्तु कभी प्रतिपत्ति का विषय नहीं होती उसे स्वीकार करना सम्भव नहीं है। यदि यह शंका की जाय कि-"नील-पीतादि अर्थों के अवभास की शून्यता की भी प्रतिपत्ति नहीं होती अतः शून्यता का भी अभ्युपगम नहीं हो सकता"- तो इस शंका से शून्यतावादी की कोई हानि नहीं है, क्योंकि शून्यतावादी नीलपीतादि अर्थों के प्रतिभासाभाव को शून्यता नहीं कहते किन्तु समस्त धर्मों के प्रतिभासोपमत्य को शून्यता कहते हैं। "सर्व शून्यात्मक है"-उन के इस कथन का प्राशय यह है कि समस्त धर्म प्रतिभास तुल्य-मायासहश है। जैसा कि माध्यमिक आचार्यों ने स्पष्ट कहा है कि-'अशेष धर्म प्रतिभासोपम मायोपम होते हैं।